न किसी ने उसकी बात का जवाब ही दिया, आखिर इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "बस करो, उसे मालूम हो गया कि तुम्हारा पागलपन जाता रहा, अब हम लोगों को फँसाने के लिए वह जरूर कोई दूसरा ही ढंग काम में लावेगी।"
आखिर भैरोंसिंह चुप हो रहे और थोड़ी देर बाद तीनों आदमी इधर-उधर का तमाशा देखने के लिए यहाँ से रवाना हुए। इस समय दिन बहुत कम बाकी था।
तीनों आदमी बाग के पश्चिम की तरफ गये जिधर संगमरमर की एक बारहदरी थी। उसके दोनों तरफ दो इमारतें और थीं जिनके दरवाजे बन्द रहने के कारण यह नहीं जाना जाता था कि उसके अन्दर क्या है मगर बारहदरो खुले ढंग की बनी हुई थी अर्थात् उसके पीछे की तरफ दीवानखाना और आगे की तरफ केवल तेरह खम्भे लगे हुए थे जिनमें दरवाजा चढ़ाने की जगह न थी।
इस बारहदरी के मध्य में एक सुन्दर चबूतरा बना हुआ था जिस पर कम-से-कम पन्द्रह आदमी बखूबी बैठ सकते थे। उस चबूतरे के ऊपर बीचोंबीच में लोहे का चौखूटा तख्ता था जिसमें उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी और चबूतरे के सामने की दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा था जो इस समय खुला हुआ था और उसके अन्दर दो-चार हाथ के बाद अंधकार सा जान पड़ता था। भैरोंसिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यदि आज्ञा हो तो इस छोटे-से दरवाजे के अन्दर जाकर देखू कि इसमें क्या है?"
इन्द्रजीतसिंह––यह तिलिस्म का मुकाम है, खिलवाड़ नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि तुम अन्दर जाओ और दरवाजा बन्द हो जाय! फिर तुम्हारी क्या हालत होगी, सो तुम्हीं सोच लो।
आनन्दसिंह––पहले यह तो देखो कि दरवाजा लकड़ी का है या लोहे का?
इन्द्रजीतसिंह––भला तिलिस्म बनाने वाले इमारत के काम में लकड़ी क्यों लगाने लगे जिसके थोड़े ही दिन में बिगड़ जाने का खयाल होता है, मगर शक मिटाने के लिए यदि चाहो तो देख लो।
भैरोंसिंह––(उस दरवाजे को अच्छी तरह जाँचकर) बेशक यह लोहे का बना हुआ है। इसके अन्दर कोई भारी चीज डालकर देखना चाहिए कि बन्द होता है या नहीं, यदि किसी आदमी के जाने से बन्द हो जाता होगा तो मालूम हो जायेगा।
आनन्दसिंह––(चबूतरे की तरफ इशारा करके) पहले इस तख्ते को उठाकर देखो कि इसके अन्दर क्या है!
"बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह चबूतरे के ऊपर चढ़ गया और कड़ी में हाथ डाल के उस तख्ते को उठाने लगा। तख्ता किसी कब्जे या पेंच के सहारे उसमें जड़ा हुआ न था बल्कि चारों तरफ से अलग था, इसलिए भैरोंसिंह ने उसे उठाकर चबूतरे के नीचे रख दिया, इसके बाद झाँककर देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
भैरोंसिंह ने नीचे उतरने के लिए आज्ञा माँगी मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उसे रोककर स्वयं नीचे उतर गये और भैरोंसिंह तथा आनन्दसिंह को ऊपर मुस्तैद रहने के लिए ताकीद कर गये।