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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/८०

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वे अक्षर ये थे––

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दो घड़ी तक गौर करने पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह उनका मतलब समझ गये और अपने छोटे भाई कुँअर आनन्दसिंह को भी समझाया। इसके बाद दोनों भाइयों ने जोर करके उस पत्थर को दबाया, तो वह अन्दर की तरफ घुसकर जमीन के बराबर हो गया और अन्दर जाने लायक एक खासा दरवाजा दिखाई देने लगा, साथ ही इसके भीतर की तरफ अन्धकार भी मालूम हुआ। इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी करके आगे चलने के लिए आनन्दसिंह से कहा।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गये और एक छोटे से कमरे में पहुँचे जिसके बीचोंबीच से ऊपर की मंजिल में जाने के लिए छोटी-छोटी चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उन्हीं सीढ़ियों की राह से दोनों कुमार ऊपर वाली मंजिल पर चढ़ गए और एक ऐसी कोठरी में पहुँचे, जिसकी बनावट अर्धचन्द्र के ढंग की थी और तीन दरवाजे बाग की तरफ उस बारहदरी के ठीक सामने थे, जिसमें रात को दोनों कुमारों ने आराम किया था।

बाग की तरफ वाले तीनों दरवाजे खोल देने से उस कोठरी के अन्दर अच्छी तरह उजाला हो गया, उस समय आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी बन्द की और उसे कमर में रखने के बाद अपने भाई से कहा

आनन्दसिंह––इसी कोठरी में रात को भैरोंसिंह ने कई आदमियों को चलतेफिरते तथा काम करते देखा था, और मालूम होता है कि इसके दोनों तरफ की कोठरियों का सिलसिला एक-दूसरे से लगा हुआ है और सभी का एक-दूसरे से सम्बन्ध है।

इन्द्रजीतसिंह––मैं भी ऐसा ही विश्वास करता हूँ, इस दाहिने बगल वाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोलो और देखो कि उसके अन्दर क्या है।

बड़े कुमार की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने बगल वाली दूसरी कोठरी का दरवाजा खोला, उसी समय दोनों कुमारों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई आदमी तेजी के साथ कोठरी में से निकलकर इसके बाद वाली दूसरी कोठरी में चला गया। दोनों कुमारों ने तेजी के साथ उसका पीछा किया और उस दूसरी कोठरी में गए, जिसका दरवाजा मजबूती के साथ बन्द न था तो नानक पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस कोठरी के वे दरवाजे जो बाग की तरफ पड़ते थे, बन्द थे, मगर दिन का समय होने के कारण झिलमिलियों की दरारों में से पड़ने वाली रोशनी ने उसमें इतना उजाला जरूर कर रखा था कि आदमी की सूरत-शक्ल बखूबी दिखाई दे जाये, यही सबब था कि निगाह पड़ते ही दोनों कुमारों ने नानक को पहचान लिया, इसी तरह नानक ने भी दोनों कुमारों को पहचान कर प्रणाम