पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/७९

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आनन्दसिंह––मेरी राय है कि तिलिस्मी खंजर से इस छोटे से दरवाजे को काटने का उद्योग किया जाये, शायद...

इन्द्रजीतसिंह––अच्छी बात है, कोशिश करो।

आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर का वार उस छोटे से दरवाजे पर किया; मगर कोई नतीजा न निकला, आखिर दोनों भाई लाचार होकर वहाँ से हटे और किसी दालान में एक किनारे बैठकर बातचीत में रात बिताने का उद्योग करने लगे।

रात के साथ-ही-साथ दोनों कुमारों को उदासी भी कुछ-कुछ जाती रही और फूलों की महक से बसी हुई सुबह की ठण्डी हवा ने उद्योग और उत्साह का संचार किया। दोनों के पराधीन और चुटीले दिलों में किसी की याद ने गुदगुदी पैदा कर दी और बारह पर्दे के अन्दर से भी खुशबू फैलाने वाली, मगर कुछ दिनों तक नाउम्मीदी के पाले से गन्धहीन हो गई कलियों पर आशारूपी वायु के झपेटे से बहक कर आए हुए शृंगाररूपी भ्रमर इस समय पुनः गुंजार करने लग गये।

क्या आज दिन भर की मेहनत से भी अपने प्रेमी का पता न लगा सकेंगे? क्या आज दिन भर के उद्योग को सहायता से भी इस छोटी-सी मगर अनूठी रंगशाला के नेपथ्य में से किसी की खोज निकालने में सफल मनोरथ न होंगे? क्या आज दिन भर की कार्रवाई भी हमें विश्वास न दिला सकेगी कि इस जानोदिल का मालिक इसी स्थान में आ पहुँचा है जैसा कि सुन चुके हैं और क्या आज दिन भर की उपासना का फल भी जुदाई की उस काली घटा को दूर न कर सकेगा, जिसने इन चकोरों को जीवन-दान देने वाले पूर्णचन्द्र को छिपा रखा है? नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आज दिन भर में हम बहुत-कुछ कर सकेंगे और उनका पता अवश्य लगावेंगे, जिन पर अपनी जिन्दगी का भरोसा समझते हैं और जिनके मिलाप से बढ़कर इस दुनिया में और किसी चीज को नहीं मानते।

इसी तरह की बातें सोचते हुए दोनों कुमारखड़े हो गये। नहर के किनारे आकर हाथ-मुँह धोने के बाद घड़ी भर के अन्दर ही जरूरी कामों से छुट्टी पाकर वे बाग में घूमने और वहाँ की हर एक चीज को गौर से देखने लगे और थोड़ी ही देर में बारहदरी के सामने वाली उस दोमंजिली इमारत के नीचे जा पहुंचे, जिसके ऊपर वाली मंजिल में रात को कोई काम करते हुए भैरोंसिंह ने कई आदमियों को देखा था।

इस इमारत के नीचे वाला भाग ऊपर वाले हिस्से के विपरीत दरवाजे बल्कि दरवाजे के किसी नामोनिशान तक से भी खाली था। बाग की तरफ वाली नीचे की दीवार साफ तथा चिकने संगमर्मर की बनी हुई थी और बीचोंबीच चार हाथ ऊँचा और दो हाथ चौड़ा स्याह पत्थर का एक टुकड़ा लगा हुआ था। उसमें नीचे लिखे मोटे छत्तीस अक्षर खुदे हुए थे, जिन्हें दोनों कुमार बड़े गौर से देखने और उनका मतलब जानने के लिए उद्योग करने लगे।