पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/८२

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यही कहला भेजा था कि मैं नानक को तुम्हारे पास भेजूँगी, तुम उसकी जुबानी सब हाल सुनकर हिफाजत के साथ उसे तिलिस्म के बाहर कर देना।

नानक––(कुछ शर्मीला-सा होकर) जी ई ई ई, आप तो दिल्लगी करते हैं, मालूम होता है आपको मुझ पर कुछ शक है और आप समझते हैं कि मैं आपके दुश्मन का ऐयार हूँ और नानक की सूरत बनाकर आया हूँ, अतः आप जिस तरह चाहें मेरी आजमाइश कर सकते हैं।

इतने में ही एक तरफ से आवाज आई, "जब तुम कमलिनीजी के भेजे हुए आए हो, तो आजमाइश करने की जरूरत ही क्या है? थोड़ी देर में कमलिनी का सामना आप ही हो जायेगा!"

इस आवाज ने दोनों कुमारों को तो कम, मगर नानक को हद से ज्यादा परेशान कर दिया। उसके चेहरे पर हवाई-सी उड़ने लगी और वह घबड़ाकर पीछे की तरफ देखने लगा। इस कोठरी में से दूसरी कोठरी में जाने के लिए जो दरवाजा था, वह इस समय मामूली तौर पर बन्द था, इसलिए किसी गैर पर उसकी निगाह न पड़ी, अतएव उस दरवाजे को खोलकर नानक अपनी कोठरी में चला गया, मगर साथ ही आनन्दसिंह ने भी वहाँ पहुँच कर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "बस इतने ही में घबड़ा गए! इसी हौसले पर तिलिस्म के अन्दर आये थे! आओ-आओ, हम तुम्हें बाग में ले चलते हैं जहाँ निश्चिन्ती से बैठकर अच्छी तरह बातें कर सकेंगे।"

इसी समय दो दरवाजे खुले और स्याह लबादा ओढ़े हुए चार-पाँच आदमी उसके अन्दर से निकल आए, जो नानक को जबर्दस्ती घसीट कर ले गए, साथ ही वे दरवाजे भी उसी तरह बन्द हो गए, जैसे पहले थे। दोनों कुमारों ने भी कुछ सोचकर आपत्ति न की और उसे ले जाने दिया।

और कोठरियों की बनिस्बत इस कोठरी में दरवाजे ज्यादा थे, अर्थात् दो दरवाजे दोनों तरफ तो थे ही, मगर बाग की तरफ चार और पिछली तरफ दो दरवाजे और थे तथा उसी पिछली तरफ वाले दोनों दरवाजों में से वे लोग आये थे, जो नानक को घसीट कर ले गए थे। नानक को ले जाने के बाद आनन्दसिंह ने उन्हीं पिछली तरफवाले दरवाजों में से एक दरवाजा खोला और अन्दर की तरफ झाँक कर देखा। भीतर बहुत लम्बा-चौड़ा एक कमरा नजर आया, जिसमें अन्धकार का नाम-निशान भी न था, बल्कि अच्छी तरह उजाला था। दोनों कुमार उस कमरे में चले गए और तब मालूम हुआ कि वे दरवाजे एक ही कमरे में जाने के लिए हैं। इस कमरे में दोनों कुमारों ने एक बहुत बूढ़े आदमी को देखा, जो चारपाई के ऊपर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था। कुमारों को देखते ही वह चारपाई के नीचे उतर कर खड़ा हो गया और सलाम करके बोला, "आज कई दिनों से मैं आप दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रहा हूँ।"

इन्द्रजीतसिंह––तुम कौन हो?

बुड्ढा––जी, मैं इस बाग का दारोगा हूँ।

इन्द्रजीतसिंह––तुम हम लोगों का इन्तजार क्यों कर रहे थे?

दारोगा––इसलिए कि आप लोगों को यहाँ की इमारतों और अजायबातों की