को साथ लिए हुए इन्द्रानी चली गई और मुझे पीछे तरद्दुद में छोड़ गई। अन्त में उसी औरत की मदद से मैं यहाँ तक पहुँचा।
इन्द्रजीतसिंह––आखिर उस औरत से भी तुमने कुछ पूछा या नहीं?
भैरोंसिंह––पूछा तो बहुत कुछ, मगर उसने जवाब एक बात का भी न दिया मानो वह कुछ सुनती ही न थी। हाँ, एक बात कहना तो मैं भूल ही गया।
इन्द्रानी––वह क्या?
भैरोंसिंह––इन्द्रानी के चले जाने के बाद जब मैं उस औरत के साथ इधर आ रहा था तब रास्ते में एक लपेटा हुआ कागज मुझे मिला जो जमीन पर इस तरह पड़ा हुआ था जैसे किसी राह-चलते की जेब से गिर गया हो। (कमर से कागज निकाल कर और कुँअर इन्द्रजीतसिंह के हाथ में देकर) लीजिए पढ़िए, मैं तो इसे पढ़कर पागल सा हो गया था।
भैरोंसिंह के हाथ से कागज लेकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने पढ़ा और उसे अच्छी तरह देखकर भैरोंसिंह से कहा, "बड़े आश्चर्य की बात है, मगर यह हो नहीं सकता, क्यों कि हमारा दिल हमारे कब्जे में नहीं है और न हम किसी के आधीन हैं।"
आनन्दसिंह––भैया, जरा मैं भी तो देखूँ, यह कागज कैसा है और इसमें क्या लिखा है?
इन्द्रजीतसिंह––(वह कागज देकर) लो देखो।
आनन्दसिंह––(कागज को पढ़कर और उसे अच्छी तरह देखकर) यहतो अच्छी जबर्दस्ती है, मानो हम लोग कोई चीज ही नहीं हैं। (भैरोंसिंह से) जिस समय यह चिट्ठी तुमने जमीन पर से उठाई थी उस समय उस औरत ने भी देखा या तुमसे कुछ कहा था कि नहीं जो तुम्हारे साथ थी?
भैरोंसिंह––उसे इस बात की कुछ भी खबर नहीं थी क्योंकि वह मेरे आगे-आगे चल रही थी। मैंने जमीन पर से चिट्ठी उठाई भी और पढ़ी भी मगर, उसे कुछ भी मालूम न हुआ। मुझे तो शक होता है कि वह गूँगी और बहरी अथवा हद से ज्यादा सीधी और बेवकूफ थी।
आनन्दसिंह––इस पर मोहर इस ढंग की पड़ी हुई है जैसे किसी राजदरवार की हो।
भैरोंसिंह––बेशक ऐसी ही मालूम पड़ती है। (हँसकर इन्द्रजीतसिंह से) चलिए आपके लिए तो पौ-बारह हैं किस्मत का धनी होना इसे ही कहते हैं?
इन्द्रजीतसिंह––तुम्हारी ऐसी की तैसी।
पाठकों के सुभीते के लिए हम उस चिट्ठी की नकल यहाँ लिख देते हैं जिसे पढ़ कर और देखकर दोनों कुमारों और भैरोंसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ था––"पूज्यवर,
पत्र पाकर चित्त प्रसन्न हुआ। आपकी राय बहुत अच्छी है। उन दोनों के लिए कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ऐसा वर मिलना कठिन है, इसी तरह दोनों कुमारों को भी ऐसी स्त्री नहीं मिल सकती। बस अब इसमें सोच-विचार करने की कोई जरूरत