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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१४८

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करो, दुःख न दो, मेरे मुंह में बार-बार स्याही न लगाओ। उन दिनों मैं पराधीन थी मेरा कोई सहायक न था, मेरे लिए कोई और ठिकाना न था, और उस दुष्टा का साथ छोड़कर मैं अपने को कहीं छिपा भी नहीं सकती थी और डरती थी कि वहां से निकल भागने पर कहीं मेरी इज्जत पर न आ बने ! मगर बहिन, तुम जान-बूझकर बार-बार उन बातों की याद दिलाकर मुझे सताती हो, कहो बैलूं या यहां से उठ जाऊँ?

किशोरी--अच्छा-अच्छा जाने दो, माफ करो, मुझसे भूल गई, मगर मेरा मत- लब वह न था जो तुमने समझा है, मैं दो-चार बातें नानक के विषय में पूछना चाहती थी जिसका पता अभी तक नहीं लगा और जो भेद की तरह हम लोगों

लाड़िली--(बात काटकर) वे बातें भी तो मेरे लिए वैसी ही दुःखदायी हैं।

किशोरी--नहीं-नहीं, मैं यह न पूडूंगी कि तुमने नानक के साथ रामभोली बन- कर क्या-क्या किया, बल्कि यह पूडूंगी कि उस टोन के डिब्बे में क्या था जो नानक ने चुरा लाकर तुम्हें बजरे में दिया था ? कुएं में से हाथ कैसे निकला था ? नहर के किनारे वाले बंगले में पहुंचकर वह क्योंकर फंसा लिया गया ? उस बंगले में वह तस्वीरें कैसी थों ? असली रामभोली कहाँ गई और क्या हुई ? रोहतासगढ़ तहखाने के अन्दर तुम्हारी तस्वीर किसने लटकाई और तुम्हें वहाँ का भेद कैसे मालूम हुआ था इत्यादि बातें मैं कई दफे कई तरह से सुन चुकी हूँ मगर उनका असल भेअभी तक कुछ मालूम न हुआ।

लाड़िली--हां, इन सब बातों का जवाब देने के लिए मैं तैयार हूँ। तुम जानती हो और अच्छी तरह सुन और समझ भी चुकी हो कि वह तिलिस्मी बाग तरह-तरह के अजायबातों से भरा हुआ है, विशेष नहीं तो भी वहाँ का बहुत-कुछ हाल मायारानी और दारोगा को मालूम था। वहां या उसकी सरहद में ले जाकर किसी को हराने, धमकाने या तकलीफ देने के लिए कोई ताज्जुब का तमाशा दिखाना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी--हां, सो तो ठीक ही है।

लाड़िली--और फिर नानक जान-बूझकर काम निकालने के लिए ही तो गिर- फ्तार किया गया था। इसके अतिरिक्त तुम पहले यह भी सुन चुकी हो कि दारोगा के बँगले या अजायबघर से खास बाग तक नीचे-नीचे रास्ता बना हुआ है, ऐसी अवस्था में नानक के साथ वैसा बर्ताव करना कौन-सी बड़ी बात थी!

किशोरी--बेशक ऐसा ही है, अच्छा उस डिब्बे वगैरह का भेद तो बताओ!

लाड़िली--उस गठरी में जो कलमदान था, वह तो हमारे विशेष काम का न था मगर उस डिब्बे में वही इन्दिरा वाला कलमदान था जिसके लिए दारोगा साहब बेताब हो रहे थे और चाहते थे कि वह किसी तरह पुनः उनके कब्जे में आ जाय । असल में उसी कलमदान के लिए मुझे रामभोली बनना पड़ा था । दारोगा ने असली रामभोली को तो गिरफ्तार करवा के इस तरह मरवा डाला कि किसी को कानों-कान खबर भी न हुई और मुझे रामभोली बनकर यह काम निकालने की आज्ञा दी । लाचार मैं रामभोली बनकर नानक से मिली और उसे अपने वश में करने के बाद इन्द्रदेव जी के मकान में से वह कलमदान तथा उसके साथ और भी कई तरह के कागज नानक की मार्फत चुरा


1. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति, चौथा भाग, नानक का बयान ।

च०स०-6-9