पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१६५

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हरनामसिंह-नहीं, ऐसा करने से जो कुछ बरस दो बरस गोपालसिंह की जिंदगी है वह भी न रहेगी अर्थात् हम लोगों के साथ ही साथ वे भी मार डाले जायेंगे। आप नही समझ सकते और नहीं जानते कि दारोगा की असली सूरत क्या है, उसकी ताकत कैसी है और उसके मजबूत जाल किस कारीगरी के साथ फैले हुए हैं । गोपालसिंह अपने को राजा और शक्तिमान समझते होंगे, मगर मैं सच कहता हूँ कि दारोगा के सामने उनकी कुछ भी हकीकत नहीं है, हाँ यदि राजा गोपालसिंह किसी को किसी तरह की खबर किए बिना एकाएक दारोगा को गिरफ्तार करके मार डालें तो बेशक वे राजा कहला सकते हैं, मगर ऐसी अवस्था में मायारानी उन्हें जीता न छोड़गी और लक्ष्मीदेवी वाला भेद भी ज्यों-का-त्यों बन्द रह जायेगा और वह भी किसी तहखाने में पड़ी-पड़ी भूखी-प्यासी मर जाएगी।

इसी तरह पर हमारे और हरदीन के बीच में देर तक बातें होती रहीं और वह मेरी हर एक बात का जवाब देता रहा । अन्त में वह मुझे समझा-बुझाकर घर से बाहर निकल गया और उसका पता न लगा।

रात भर मुझे नींद न आई और मैं तरह-तरह की बातें सोचता रह गया । सुबह को चारपाई से उठा, हाथ मुंह धोने के बाद दरबारी कपड़े पहने, हर्के लगाए और राजा साहब की तरफ रवाना हुआ । जब मैं उस तिमुहानी पर पहुंचा, जहां से एक रास्ता राजा साहब के दीवानखाने की तरफ और दूसरा खास बाग की तरफ गया है, तब उस जगह पर दारोगा साहब से मुलाकात हुई थी जो दीवानखाने की तरफ से लौटे चले आ रहे थे।

प्रकट में मुझसे और दारोगा साहब से बहुत अच्छी तरह साहब-सलामत हुई और उन्होंने उदासीनता के साथ मुझसे कहा, "आप दीवानखाने की तरफ कहीं जा रहे हैं, राजा साहब तो खास बाग में चले गये, मेरे साथ चलिए, मैं भी उन्हीं से मिलने के लिए जा रहा हूँ, सुना है कि रात से उनकी तबीयत खराब हो रही है।

मैं-(ताज्जुब के साथ) क्यों-क्यों, कुशल तो है?

दारोगा--अभी-अभी पता लगा है कि आधी रात के बाद से उन्हें बेहिसाब दस्त और उल्टी आ रहे हैं, आप कृपा करके यदि मोहनजी वैद्य को अपने साथ लेते आवें, तो बड़ा काम हो, मैं खुद उनकी तरफ जाने का इरादा कर रहा था।

दारोगा की बातें सुनकर मैं घबड़ा गया, राजा साहबकी बीमारी का हाल सुनते ही मेरी तबीयत उदास हो गई और मैं 'अच्छा' कह उल्टे पैर लौटा और मोहनजी बैद्य की तरफ रवाना हुआ।

यहाँ तक अपना हाल कह कुछ देर के लिए भरतसिंह चुप हो गये और दम लेने लगे। इस समय जीतसिंह ने महाराज की तरफ देखा और कहा, "भरतसिंहजी का किस्सा भी आम-दरबार में कैदियों के सामने ही सुनने लायक है।"

महाराज--बेशक ऐसा ही है । (गोपालसिंह से) तुम्हारी क्या राय है?

गोपालसिंह-महाराज की इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ बोल न सका नहीं तो मैं भी यही चाहता था कि और नकाबपोशों की तरह इनका किस्सा भी कैदियों के सामने ही