पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१७०

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देखने लगे। वे दोनों सिर नीचा किए हुए जमीन की तरफ देख रहे थे और डर के मारे दोनों का बदन काँप रहा था। भरतसिंह ने पुकार कर कहा, "कहिए दारोगा साहब, जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह सच है या झूठ ?" मगर दारोगा ने इसका कुछ भी जवाब न दिया। मगर उस समय दरबार में जितने आदमी बैठे थे, क्रोध के मारे सभी का बुरा हाल था और सब कोई दारोगा की तरफ जलती हुई निगाह से देख रहे थे । भरतसिंह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया-

भरतसिंह--दारोगा के सम्बन्ध में मेरा किस्सा वैसा दिलचस्प नहीं है जैसा दलीपशाह और अर्जुनसिंह का आप लोग सुनेंगे, क्योंकि उनके साथ बड़ी-बड़ी विचित्र घटनाएं हो चुकी हैं, बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा तमाम किस्सा उनकी एक दिन की घटना का मुकाबला भी नहीं कर सकता, परन्तु साथ ही इसके यह बात भी जरूर है कि मैंने न तो कभी किसी के साथ किसी तरह की बुराई की और न किसी से विशेष मेलजोल या हँसी-दिल्लगी ही रखता था, फिर भी उन दिनों जमानिया की वह दशा थी कि सादे ढंग पर जिन्दगी बिताने वाला मैं भी सुख की नींद न सो सका और राजा साहब की दोस्ती की बदौलत मुझे हर तरह का दुःख भोगना पड़ा। इस हरामखोर दारोगा ने ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि जिनका पूरा-पूरा बयान हो ही नहीं सकता और न यही मेरी समझ में आता है कि दुनिया में कौन-सी ऐसी सजा है जो इसके योग्य समझी जाय।अतः अब मैं संक्षेप में अपना हाल समाप्त करता हूँ।

अपने मन के माफिक चिट्ठी लिखाने की नीयत से आठ दिन तक कम्बख्त दारोगा ने मुझे बेहिसाब सकलीफें दीं। मिर्च का तोबड़ा मेरे मुंह पर चढ़ाया, जहरीली राई का लेप मेरे बदन पर किया, कुएँ में लटकाया, गन्दी कोठरी में बन्द किया, जो-जो सूझा सब कुछ किया और इतने दिनों तक बराबर ही मुझे भूखा भी रखा, मगर न मालूम क्या सबब था कि मेरी जान नहीं निकली । मैं बराबर ईश्वर से प्रार्थना करता था कि किसी तरह मुझे मौत दे जिससे इस दुःख से छुट्टी मिले । आखिरी दिन मैं इतना कमजोर हो गया था कि मुझमें बात करने की ताकत न थी।

उस दिन आधी रात के समय मैं उसी कोठरी में पड़ा-पड़ा मौत का इन्तजार कर रहा था कि यकायक कोठरी का दरवाजा खुला और एक नकाबपोश दाहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएँ हाथ में एक छोटी-सी गठरी लिए हुए कोठरी के अन्दर आता हुआ दिखाई पड़ा। हाथ में वह जो तलवार लिए था, उसके अतिरिक्त उसकी कमर में एक तलवार और भी थी । कोठरी के अन्दर आते ही उसने भीतर से दरवाजा बन्द कर दिया और मेरे पास चला आया, हाथ की गठरी और तलवार जमीन पर रख मुझसे चिपट गया और रोने लगा। उसकी ऐसी मुहब्बत देख मैं चौंक पड़ा और मुझे तुरन्त मालूम हो गया कि यह मेरा पुराना खैरख्वाह हरदीन है। उसके चेहरे से नकाब हटाकर मैंने उसकी सूरत देखी और तब रोने में उसका साथ दिया ।

थोड़ी ही देर बाद हरदीन भुझसे अलग हुआ और बोला, "मैं किसी न किसी तरह यहां तो पहुँच गया मगर यहां से निकल भागना जरा कठिन है, तथापि आप घबरायें नहीं, मैं एक दफा तो दुश्मन को सताए बिना नहीं रहता । अब आप शीघ्र उठे और