दारोगा--(हँसकर) वाह याह ! ऐयार लोग दिन-रात ईमानदारी की हँडिया ही तो चढ़ाए रहते हैं!
मैं--(तेजी के साथ) बेशक ! अगर ऐसा नहीं तो वह ऐयार नहीं, रियासत का कोई ओहदेदार कहा जायगा!
दारोगा--(तनकर) ठीक है ! गदाधरसिंह आप ही का नातेदार तो है, जरा उसकी तस्वीर तो खींचिये!
मैं--गदाधरसिंह किसी रियासत का ऐयार नहीं है और न मैं उसे ऐयार समझता हूँ इतना होने पर भी आप यह नहीं साबित कर सकते कि उसने अपने मालिक के साथ किसी तरह की बेईमानी की।
दारीगा—(और भी तुनक के) बस-बस-बस, रहने दीजिये। हमारे यहां भी बिहारीसिंह और हरनामसिंह ऐयार ही तो हैं।
मैं—इसी से तो मैं आपकी रियासत में जाना बेइज्जती समझता हूं।
दारोगा--(भौंह सिकोड़कर) तो इसका यह मतलब कि हम लोग बेईमान और नमकहराम हैं!
मैं-(मुस्कराकर) इस बात को तो आप ही सोचिये!
दारोगा--देखिये, जुबान संभालकर बात कीजिए, नहीं तो समझ लीजिए कि मैं मामूली आदमी नहीं हूँ।
मैं--(क्रोध से) यह तो मैं खुद कहता हूँ कि आप मामूली आदमी नहीं हैं क्योंकि आदमी में शर्म होती है और वह जानता है कि ईश्वर भी कोई चीज है।
दारोगा--(क्रोध-भरी आँखें दिखाकर) फिर वही बात!
मैं--हाँ वही बात ! गोपालसिंह के पिता वाली बात ! गुप्त कमेटी वाली बात, गदाधरसिंह की दोस्ती वाली बात ! लक्ष्मीदेवी की शादी वाली बात और जो बात कि आपके गुरुभाई साहब को नहीं मालूम है वह बात!
दारोगा--(दांत पीसकर और कुछ देर मेरी तरफ देखकर) खैर, अब इस बहुत- सी बात का जवाब लात ही से दिया जायगा।
मैं--बेशक, और साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि जवाब देने वाले भी एक-दो नहीं हैं, लातों की गिनती भी आप न सम्हाल सकेंगे । दारोगा साहब, जरा होश में आइए और सोच-विचार कर बातें कीजिए । अपने को आप ईश्वर न समझिए, बल्कि यह समझकर बातें कीजिए कि आप आदमी हैं और रियासत धौलपुर के किसी ऐयार से बातें कर रहे हैं।
दारोगा--(इन्द्रदेव की तरफ आँखें तरेरकर)क्या आप चुपचाप बैठे तमाशा देखेंगे और अपने मकान में मुझे बेइज्जत करावेंगे?
इन्द्रदेव--आप तो खुद ही अपनी अनोखी मिलनसारी से अपने को बेइज्जत करा रहे हैं, इनसे बात बढ़ाने की आपको जरूरत ही क्या थी ? मैं आप दोनों के बीच में नहीं क्योंकि दलीपशाह को भी अपना भाई समझता और इज्जत की निगाह से बोल सकता, देखता हूँ।