"आठ-दस दिन बीत जाने पर भी न तो जमानिया से कुछ खबर आई और न गिरिजाकुमार ही लौटा। हाँ रियासत की तरफ से एक चिट्ठी न्यौते की जरूर आई, थी जिसके जवाब में इन्द्रदेव ने लिख दिया कि गोपालसिंह से और मुझसे दोस्ती थी सो वह तो चल बसे, अब उनकी क्रिया मैं अपनी आँखों से देखना पसन्द नहीं करता।
"मेरी इच्छा तो हुई कि गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए मैं खुद जाऊँ, मगर इन्द्रदेव ने कहा कि अभी दो-चार दिन और राह देख लो, कहीं ऐसा न हो कि तुम उसकी खोज में जाओ और वह यहाँ आ जाय। अतः मैंने भी ऐसा ही किया।
"बारहवें दिन गिरिजाकुमार हम लोगों के पास आ पहुँचा। उसके साथ अर्जुनसिंह भी थे जो हम लोगों की मण्डली में एक अच्छे ऐयार गिने जाते थे, मगर भूतनाथ और इनके बीच खूब ही चख-चख चली आती थी। (महाराज और जीतसिंह की तरफ देखकर) आपने सुना ही होगा कि इन्होंने एक दिन भूतनाथ को धोखा देकर कुएं में धकेल दिया था और उसके बटुए में से कई चीजें निकाल ली थीं।
जीतसिंह––हाँ मालूम है, मगर इस बात का पता नहीं लगा कि अर्जुन ने भूतनाथ के बटुए में से क्या निकाला था।
इतना कहकर जीतसिंह ने भूतनाथ की तरफ देखा।
भूतनाथ––(महाराज की तरफ़ देखकर) मैंने जिस दिन अपना किस्सा सरकार को सुनाया था उस दिन अर्ज किया था कि जब वह कागज का मुट्ठा मेरे पास से चोरी गया तो मुझे बड़ा ही तरद्दुद हुआ, उसके बहुत दिनों के बाद राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी[१] इत्यादि। यह वही कागज का मुट्ठा था जो अर्जुनसिंह ने मेरे बटुए में से निकाल लिया था, तथा इसके साथ और भी कई कागज थे। असल बात यह है कि उन चिट्ठियों की नकल के मैंने दो मुढे तैयार किये थे, एक तो हिफाजत के लिए अपने मकान में रख छोड़ा था और दूसरा मुट्ठा समय पर काम लेने के लिए हरदम अपने बटुए में रखता था। मुझे गुमान था कि अर्जुनसिंह ने जो मुट्ठा ले लिया था उसी से मुझे नुकसान पहुँचा मगर अब मालूम हुआ कि ऐसा नहीं हुआ, अर्जुनसिंह ने न तो वह किसी को दिया और न उससे मुझे कुछ नुकसान पहुँचा। हाल में जो दूसरा मुट्ठा जयपाल ने मेरे घर से चुरवा लिया था, उसी ने तमाम बखेड़ा मचाया।
जीतसिंह––ठीक है (दलीपशाह की तरफ देख के) अच्छा, तब क्या हुआ?
दलीपशाह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया––
दलीपशाह––गिरिजाकुमार और अर्जुनसिंह में एक तरह की नातेदारी भी है परन्तु उसका खयाल न करके ये दोनों आपस में दोस्ती का बर्ताव रखते थे। खैर, उस समय दोनों के आ जाने से हम लोगों को खुशी हुई और इस तरह बातें होने लगीं––
मैं––गिरिजाकुमार, तुमने तो बहुत दिन लगा दिए!
गिरजाकुमार––जी हाँ, मुझे तो और भी कई दिन लग जाते मगर इत्तिफाक से अर्जुनसिंह से मुलाकात हो गई और इनकी मदद से मेरा काम बहुत जल्द हो गया।
- ↑ देखिए इक्कीसवाँ भाग, दूसरा बयान।