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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/२०७

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लिए अब किसी तरह की दिलचस्पी नहीं रह गई थी।

"बेगम की जो चीजें मेरे हाथ लगी थीं, उनमें से कई कागज और एक हीरे की अँगूठी ऐसी थी, जिस पर ध्यान देने से हम लोगों को मालूम हो गया कि बेगम भी कोई साधारण औरत नहीं थी। उन कागजों में से कई चिट्ठियाँ ऐसी थीं जो भूतनाथ के विषय में जयपाल ने बेगम को लिखी थीं और कई चिट्ठियाँ ऐसी थीं जिनके पढ़ने से मालूम होता था कि मायारानी के बाप को इसी जयपाल ने मायारानी और दारोगा की इच्छानुसार मार कर जहन्नुम में पहुंचा दिया है और बलभद्रसिंह अभी तक जीता है, मगर साथ ही इसके उन चिट्ठियों से यह भी जाहिर होता था कि असली लक्ष्मीदेवी निकल कर भाग गई, जिसका पता लगाने के लिए दारोगा बहुत उद्योग कर रहा है, मगर पता नहीं लगता । वह जो हीरे की अंगूठी थी वह वास्तव में हेलासिंह (मायारानी के बाप) की थी जो उसके मरने के बाद जयपाल के हाथ लगी थी। उस अंगूठी के साथ एक कागज का पुर्जा बंधा हुआ था जिस पर बलभद्रसिंह को कैद में रखने और हेलासिंह को मार डालने की आज्ञा थी और उस पर मायारानी तथा दारोगा दोनों के हस्ताक्षर थे।

"वे कागज पुर्जे और अंगूठी इस समय महाराज के दरबार में मौजूद हैं जी भूतनाथ बेगम के यहाँ से उस समय ले आया था, जब वह असली बलभद्रसिंह को छुड़ाने लिए गया था। आप लोगों को इस बात आश्चर्य होगा कि जब ये सब चीजें बेगम के गिरफ्तार करने पर मेरे कब्जे में आ ही चुकी थीं तो पुनः बेगम के कब्जे में कैसे चली गई ? इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी है कि जब बेगम मेरे कब्जे से निकल गई तो वे चीजें भी उसी के साथ जाती रहीं और फिर मैं भी बेगम तथा दारोगा के कब्जे में चला गया और इन सब बातों का कर्ता-धर्ता भूतनाथ ही है जिसने उस समय बहुत धोखा खाया और जिसके सबब से कुछ दिन बाद उसे भी तकलीफ उठानी पड़ी। मैंने यह भी सुना था कि अपनी इस भूल से शर्मिन्दा होकर भूतनाथ ने बेगम और जमपाल को बड़ी तकलीफें दीं, मगर उसका नतीजा उस समय कुछ भी न निकला। खैर अब मैं पुनः अपने किस्से की तरफ झुकता हूँ।"

दलीपशाह की इस बात को सुनकर महाराज ने पुनः उन हीरे की अंगूठी और उन चिट्ठियों के देखने की इच्छा प्रकट की जो भूतनाथ बेगम के यहाँ से उठा लाया था। तेजसिंह ने पहले महाराज को फिर और लोगों को भी वे चीजें दिखाई और इसके बाद फिर दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया

"अर्जुनसिंह ज्यादा देर तक मेरे पास नहीं ठहरे, उस समय जो कुछ हम लोगों को करना चाहिए था, बहुत जल्द निश्चय कर लिया गया और इसके बाद अर्जुनसिंह के साथ मैं घर से वाहर निकला और हम दोनों मित्र गिरिजाकुमार की तरफ रवाना हुए।

"अब गिरिजाकुमार का हाल सुनिये कि अर्जुनसिंह से मिलने के बाद फिर क्या हुआ।

"बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार दोनों आदमी सफर करते हुए एक ऐसे स्थान में पहुंचे जहाँ से बेगम का मकान केवल पाँच कोस की दूरी पर था। यहां पर एक छोटा गाँव था, जहाँ मुसाफिरों के लिए खाने-पीने की मामूली चीजें मिल सकती थीं और जिसमें