दारोगा--(चिढ़कर) ठीक है, मैं पहले ही समझे हुए था कि तुम बिना लात खाये नाकं पर मक्खी. नहीं बैठने दोगे । खैर, देखो, मैं तुम्हारी क्या दुर्दशा करता हूँ।
"इतना कहकर दारोगा ने मुझे सताना शुरू किया। मैं नहीं कह सकता कि इसने मुझे किस-किस तरह की तकलीफें दी और सो भी एक-दो दि तक नहीं, बल्कि महीने भर तक, इसके बाद बेहोश करके मुझे तिलिस्म के अन्दर पहुंचा दिया। जब मैं होश में आया तो अपने सामने अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार को बैठे हुए पाया। बस, यही तो मेरा किस्सा है और यही मेरा बयान !"
दिलीपशाह का हाल सुनकर सबको बड़ा ही दुःख हुआ और सभी कोई लाल-लाल आँखें करके दारोगा तथा जयपाल वगैरह की तरफ देखने लगे। दरबार बर्खास्त करने का इशारा करके महाराज उठ खड़े हुए, कैदी जेलखाने में भेज दिए गए और बाकी सब अपने डेरों की तरफ रवाना हुए।
4
रात आधी से ज्यादा जा चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह के कमरे में राजा वीरेन्द्र-सिंह, राजा गोपालसिंह, कुंअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, तारासिंह,भैरोंसिंह, भूतनाथ और इन्द्रदेव बैठे आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। वृद्ध महाराज, सुरेन्द्रसिंह मसहरी पर लेटे हुए हैं ।
सुरेन्द्रसिंह--दिलीपशाह की जीवनी ने दारोगा की शैतानी और भी अच्छी तरह से झलका दी है।
जीतसिंह--बेशक ऐसा ही है । सच तो यह है कि ईश्वर ही ने पांचों कैदियों की रक्षा की, नहीं तो दारोगा ने कोई बात उठा नहीं रखी थी।
भूतनाथ--साथ ही इसके यह भी है कि सबसे ज्यादा दिलीपशाह के किस्से ने दरबार में मुझे शर्मिन्दा किया, मगर क्या करूं लाचार था कि चालबाज दारोगा ने दिलीपशाह की चिट्ठियों का मुझे ऐसा मतलब समझाया कि मैं अपने आपे से बाहर हो गया, बल्कि यह कहना चाहिए कि अन्धा हो गया !
तेजसिंह--वह जमाना ही चालबाजियों का था और चारों तरफ ऐसी ही बातें हो रही थीं। भूतनाथ, तुम अब उन बातों को एकदम से भूल जाओ और जिस नेक रास्ते पर चल रहे हो, उसी का ध्यान रखो।
जीतसिंह--अच्छा, तो अब कैदियों के बारे में जो कुछ हो फैसला कर ही देना चाहिये, जिसमें अगले दरबार में उन्हें हुक्म सुना दिया जाये।
सुरेन्द्रसिंह--(गोपालसिंह से)कहो साहब, तुम्हारी क्या राय है, किस-किस कैदी को क्या-क्या सजा देनी चाहिए?
गोपालसिंह--जो दादाजी(महाराज)की इच्छा हो, हुक्म दें ! मेरी प्रार्थना केवल इतनी ही है कि कम्बख्त दारोगा मेरे हवाले किया जाये और मुझे हुक्म हो जाये कि जो