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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/२५

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आज कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के आने की उम्मीद में लोग खुशी-खुशी तरह-तरह के चर्चे कर रहे हैं । आज ही के दिन आने के लिए दोनों कुमारों ने चिट्ठी लिखी थी, इसलिए आज उनके दादा-दादी, मां-बाप, दोस्तों और प्रेमियों को भी उम्मीद हो रही है कि उनकी तरसती हुई आँखें ठण्डी होंगी, और जुदाई के सदमों से मुरझाया हुआ दिल हरा होगा। अलहकार और खैरख्वाह लोग जरूरी कामों को भी छोड़कर तिलिस्मी इमारत में इकट्ठे हो रहे हैं। इसी तरह हर एक अदना और आला दोनों कुमारों के आने की उम्मीद में खुश हो रहा है । गरीबों और मोहताजों की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं, उन्हें इस बात का पूरा विश्वास हो रहा है कि अब उनका दारिद्र्य दूर हो जायगा !

दो पहर दिन ढलने के बाद दोनों नकाबपोश भी आकर हाजिर हो गए हैं, केवल वे ही नहीं, बल्कि उनके साथ और भी कई नकाबपोश हैं, जिनके बारे में लोग तरह-तरह के चर्चे कर रहे हैं और साथ ही यह भी कह रहे हैं कि "जिस समय ये नकाबपोश लोग अपने चेहरों से नकाबें हटायेंगे, उस समय जरूर कोई-न-कोई अनूठी घटना देखने-सुनने में आयेगी।"

नकाबपोशों की जुबानी यह तो मालूम हो ही चुका था कि दोनों कुमार उसी पत्थर वाले तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से प्रकट होंगे जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ है, इसलिए इस समय महाराज, राजासाहब और सलाहकार लोग उसी दालान में इकट्ठे हो रहे हैं, और वह दालान भी सज-सजाकर लोगों के बैठने के लायक बना दिया गया है।

तीन पहर दिन बीत जाने पर तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से कुछ विचित्र ही ढंग के बाजे की आवाज आने लगी जोकि भारी मगर सुरीली थी और जिसके सबब से लोगों का ध्यान उसकी तरफ खिंचा। महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह और गोपालसिंह तथा दोनों नकाबपोश उठकर उस चबूतरे के पास गये। ये लोग बड़े गौर से उस चबूतरे की अवस्था पर ध्यान देते रहे, क्योंकि इस बात का पूरा गुमान था कि पहले की तरह आज भी उस चबूतरे का अगला हिस्सा किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर जमीन के साथ लग जायेगा। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् जिस तरह बलभद्रसिंह के आने और जाने के वक्त उस चबूतरे का अगला हिस्सा खुल गया था, उसी तरह इस समय भी वह किवाड़ के पल्ले की तरह धीरे-धीरे खुलकर जमीन के साथ लग गया और उसके अन्दर से कुंअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह बाहर निकलकर महाराज सुरेन्द्रसिंह के पैरों पर गिर पड़े। उन्होंने बड़े प्रेम से उठाकर छाती से लगा लिया। इसके बाद दोनों कुमारों ने अपने पिता के चरण छूए, फिर जीतसिंहजी और तेजसिंह को प्रणाम करने के बाद राजा लसिंह से मिले । इसके बाद नकाबपोशों, ऐयारों व दोस्तों से भी मुलाकात की।

बन्दोबस्त पहले से हो चुका था और इशारा भी बंधा हुआ था, अतएव जिस समय दोनों कुमार महाराज के चरणों पर गिरे उसी समय फाटक पर से बाजों की आवाज आने लगी जिससे बाहर वालों को भी मालूम हो गया कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह आ गये।

इस समय की खुशी का हाल लिखना हमारी ताकतसे बाहर है। हाँ, इसका