पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
44
 


था। इस समय भी सभी की निगाहें ताज्जुब के साथ उन्हीं तस्वीरों पर पड़ रही थीं।

सुरेन्द्रसिंह --- मैं बहुत गौर कर चुका मगर अभी तक समझ में न आया कि इन तस्वीरों में किस तरह की कारीगरी खर्च की गई है जो ऐसा तमाशा दिखाती हैं । अगर मैं अपनी आँखों से इस तमाशे को देखे हुए न होता और कोई गैर आदमी मेरे सामने ऐसे तमाशे का जिक्र करता तो मैं उसे पागल ही समझता, मगर अब स्वयं देख लेने पर भी विश्वास नहीं होता कि दीवार पर लिखी तस्वीरें इस तरह काम करेंगी।

जीतसिंह --- बेशक ऐसी ही बात है । इतना देखकर भी किसी के सामने यह कहने का हौसला न होगा कि मैंने ऐसा तमाशा देखा था और सुनने वाला भी कभी विश्वास न करेगा।

ज्योतिषीजी --- आखिर यह एक तिलिस्म ही है, इसमें सभी बातें आश्चर्य की ही दिखायी देती हैं।

जीतसिंह --– चाहे यह तिलिस्म हो मगर इसके बनाने वाले तो आदमी ही थे। जो बात मनुष्य के किये नहीं हो सकती वह तिलिस्म में भी नहीं दिखाई दे सकती।

गोपालसिंह --- आपका कहना बहुत ठीक है, तिलिस्म की बातें चाहे कैसा ही ताज्जुब पैदा करने वाली क्यों न हों मगर गौर करने से उनकी कारीगरी का पता लग ही जायगा । आपने बहुत ठीक कहा, आखिर तिलिस्म के बनानेवाले भी तो मनुष्य ही थे !

वीरेन्द्रसिंह --- जब तक समझ में न आवे तब तक उसे चाहे कोई जादू कहे या करामात कहे मगर हम लोग सिवाय कारीगरी के कुछ भी नहीं कह सकते और पता लगाने तथा भेद मालूम हो जाने पर यह बात सिद्ध हो ही जाती है। इन चित्रों की कारीगरी पर भी अगर गौर किया जायगा तो कुछ न कुछ पता लग ही जायगा। ताज्जुब नहीं कि इन्द्रजीतसिंह को इसका भेद मालूम हो ।

सुरेन्द्रसिंह --- बेशक इन्द्रजीत को इसका भेद मालूम होगा ही। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) तुमने किस तरकीब से इन तस्वीरों को चलाया था ?

इन्द्रजीतसिंह --- (मुस्कुराते हुए) मैं आपसे अर्ज करूँगा और यह भी बताऊंगा कि इसमें भेद क्या है । मालूम हो जाने पर आप इसे एक साधारण बात ही समझेंगे। पहली दफा जब मैंने इस तमाशे को देखा था, तो मुझे भी बड़ा ही ताज्जुब पैदा हुआ था, मगर तिलिस्मी किताब की मदद से जब मैं इस दीवार के अन्दर पहुँचा तो सब भेद खुल गया।

सुरेन्द्रसिंह --- (खुश होकर) तब तो हम लोग बेकार ही परेशान हो रहे हैं और इतना सोच-विचार कर रहे हैं । तुम अब तक चुप क्यों थे ?

गोपालसिंह --- ऐयारों की तबीयत देख रहे थे।

सुरेन्द्रसिंह --- खैर बताओ तो सही कि इसमें क्या कारीगरी है ?

इतना सुनते ही इन्द्रजीतसिंह उठ कर उस दीवार के पास चले गये और सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, "आप जरा तकलीफ कीजिए तो मैं इस भेद को भी समझा दूं !"

महाराज सुरेन्द्रसिंह उठकर कुमार के पास चले गये और उनके पीछे-पीछे और लोग भी वहाँ जाकर खड़े हो गये। इन्द्रजीतसिंह ने दीवार पर हाथ फेरकर सुरेन्द्रसिंह