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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/५६

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इन्द्रदेव--(बैठ कर) आशा है कि महाराज मेरा वह कसूर माफ करेंगे। मुझे कई जरूरी काम करने थे, जिनके लिए अपने ढंग पर अकेले आना पड़ा। बेशक मैं इस तिलिस्म का दरोगा हूँ और इसीलिए अपने को बड़ा ही खुशकिस्मत समझता हूँ कि ईश्वर ने इस तिलिस्म को आप ऐसे प्रतापी राजा के हाथ में सौंपा है। यद्यपि आपके फर्मा-बर्दार और होनहार पोतों ने इस तिलिस्म को फतह किया है और इस सवब से वे इसके मालिक हुए हैं, तथापि इस तिलिस्म का सच्चा आनन्द और तमाशा दिखाना मेरा ही काम है, यह मेरे सिवाय किसी दूसरे के किए नहीं हो सकता जो काम कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का था, उसे ये कर चुके अर्थात् तिलिस्म तोड़ चुके और जो कुछ इन्हें मालूम होना था, हो चुका । परन्तु उन बातों, भेदों और स्थानों का पता इन्हें नहीं लग सकता, जो मेरे हाथ में हैं और जिसके सबब से मैं इस तिलिस्म का दारोगा कहलाता हूँ। तिलिस्म बनाने वालों ने तिलिस्म के सम्बन्ध में दो किताबें लिखी थीं जिनमें से वे एक तो दारोगा के सुपुर्द कर गये और दूसरी तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए छिपा कर रख गये जो कि अब दोनों कुमारों के हाथ लगी या कदाचित इनके अतिरिक्त और भी कोई किताब उन्होंने लिखी हो तो उसका हाल मैं नहीं जानता। हाँ, जो किताव दारोगा के सुपुर्द कर गये थे, वह वसीयतनामे के तौर पर पुश्त-दर-पुश्त से हमारे कब्जे में चली आ रही है और आजकल मेरे पास मौजूद है। यह मैं जरूर कहूँगा कि तिलिस्म में बहुत से मुकाम ऐसे हैं जहां दोनों कुमारों का जाना तो असम्भव ही है, परन्तु तिलिस्म टूटने के पहले मैं भी नहीं जा सकता था। हाँ, अब मैं वहाँ बखूबी जा सकता हूँ। आज मैं इसीलिए इस तिलिस्म के अन्दर-ही-अन्दर आपके पास आया हूँ कि इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा आपको दिखाऊँ । जिसे कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह नहीं दिखा सकते । परन्तु इन कामों के पहले मैं महाराज से एक चीज मांगता हूँ जिसके बिना मेरा काम नहीं चल सकता।

महाराज--वह क्या?

इन्द्रदेव--जब तक इस तिलिस्म में आप लोगों के साथ हूँ, तब तक अदब-लिहाज और कायदे की पाबन्दी से माफ रखा जाऊँ !

महाराज--इन्द्रदेव, हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं । जब तक तिलिस्म में हम लोगों के साथ हो, तभी तक के लिए नहीं, बल्कि हमेशा के लिए हमने इन बातों से तुम्हें छुट्टी दी । तुम विश्वास रखो कि हमारे बाल-बच्चे और सच्चे साथी भी हमारी इस बात का पूरा-पूरा लिहाज रखेंगे।

यह सुनते ही इन्द्रदेव ने उठकर महाराज को सलाम किया और फिर बैठ कर कहा, "अब आज्ञा हो तो खाने-पीने का सामान जो आप लोगों के लिए लाया हूँ, हाजिर करूँ।"

महाराज-अच्छी बात है लाओ, क्योंकि हमारे साथियों में से कई ऐसे हैं जो भूख के मारे बेताब हो रहे होंगे।

तेजसिंह--मगर इन्द्रदेव, तुमने इस बात का परिचय तो दिया ही नहीं कि तुम वास्तव में इन्द्रदेव ही हो या कोई और ?