पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
77
 

किया। खैर कोई चिन्ता नहीं, भूतनाथ अपनी इस बेवकूफी पर अफसोस करेगा और पछतावेगा, तुम इस बात का खयाल न करो और भूतनाथ से मिलना-जुलना छोड़कर दयाराम की खोज में लगे रहो, तुम्हारा अहसान रणधीरसिंह पर और मेरे ऊपर होगा।

इन्द्रदेव ने बहुत कुछ कह-सुनकर मेरा क्रोध शान्त किया और दो दिन तक मुझे अपने यहाँ मेहमान रक्खा। तीसरे दिन मैं इन्द्रदेव से बिदा होने वाला ही था कि तभी इनके एक शागिर्द ने आकर एक विचित्र खबर सुनाई। उसने कहा कि आज रात को बारह बजे के समय मिर्जापुर के एक जमींदार 'राजसिंह' के यहाँ दयाराम के होने का पता मुझे लगा है । खुद मेरे भाई ने यह खबर दी है। उसने यह भी कहा है कि आज कल नागर भी उन्हीं के यहाँ है।

इन्द्रदेव--(शागिर्द से) वह खुद मेरे पास क्यों नहीं आया ?

शागिर्द--वह आप ही के पास आ रहा था, मुझसे रास्ते में मुलाकात हुई और उसके पूछने पर मैंने कहा कि दयाराम जी का पता लगाने के लिए मैं तैनात किया गया हूँ। उसने जवाब दिया कि अब तुम्हारे जाने की कोई जरूरत न रही, मुझे उनका पता लग गया और यही खुशखबरी सुनाने के लिए मैं सरकार के पास जा रहा था, मगर अब तुम मिल गये हो तो मेरे जाने की कोई जरूरत नहीं। जो कुछ मैं कहता हूँ, तुम जाकर उन्हें सुना दो और मदद लेकर बहुत जल्द मेरे पास आओ। मैं फिर उसी जगह जाता हूँ, कहो ऐसा न हो कि दयाराम जी वहाँ से भी निकालकर किसी दूसरी जगह पहुँचा दिये जायँ और हम लोगों को पता न लगे, मैं जाकर इस बात का ध्यान रखूगा। इसके बाद उसने सब कैफियत बयान की और अपने मिलने का पता बताया।

इन्द्रदेव--ठीक है उसने जो कुछ किया बहुत अच्छा किया, अब उसे मदद पहुंचाने का बन्दोबस्त करना चाहिए।

शागिर्द--यदि आज्ञा हो तो भूतनाथ को भी इस बात की इत्तिला दे दी जाय?

इन्द्रदेव-कोई जरूरत नहीं, अब तुम जाकर कुछ आराम करो, तीन घण्टे बाद फिर तुम्हें सफर करना होगा।

इसके बाद इन्द्रदेव का शागिर्द जब अपने डेरे पर चला गया, तब मुझसे और इन्द्रदेव से बातचीत होने लगी। इन्द्रदेव ने मुझसे मदद माँगी और मुझे मिर्जापुर जाने के लिए कहा, मगर मैंने इनकार किया और कहा कि अब मैं न तो भूतनाथ का मुंह देखूगा और न उसके किसी काम में शरीक होऊँगा। इसके जवाब में इन्द्रदेव ने मुझे पुनःसमझाया और कहा कि यह काम भूतनाथ का नहीं है, मैं कह चुका हूँ कि इसका अहसान मुझ पर और रणधीरसिंह जी पर होगा।

इसी तरह की बहुत-सी बातें हुईं, लाचार मुझे इन्द्रदेव की बात माननी पड़ी और कई घण्टे के बाद इन्द्रदेव के उसी शागिर्द 'शम्भू' को साथ लिए हुए मैं मिर्जापुर की तरफ रवाना हुआ। दूसरे दिन हम लोग मिर्जापुर जा पहुँचे और बताये हुए ठिकाने पर पहुँचकर शम्भू के भाई से मुलाकात की। दरियाफ्त करने पर मालूम हुआ कि दयाराम अभी तक मिर्जापुर की सरहद के बाहर नहीं गये हैं, अतः जो कुछ हम लोगों को करना था, आपस में तय करने के बाद सूरत बदलकर बाहर निकलें।