फलां जगह छोड़ा या फेंका है वहां जाने से जरूर मिल जायेगा, उसकी तरफ दौड़ जाय,तो बेशक समझा जायगा कि उसे उसके फेंक देने का रंज हुआ था और उसके मिल जाने से प्रसन्नता होगी, लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो नहीं।
भूतनाथ--ठीक है, मगर वह आदमी उस जगह, जहाँ उसने हीरे को पत्थर समझकर फेंका, था पुनः उसे पाने की आशा में तभी जायगा जब अपना जाना सार्थक समझेगा। परन्तु जब उसे यह निश्चय हो जायगा कि वहां जाने में उस हीरे के साथ तू भी बर्बाद हो जायगा, अर्थात् वह हीरा भी काम का न रहेगा और तेरी भी जान जाती रहेगी, तब वह उसकी खोज में क्यों जायगा ?
शान्ता--ऐसी अवस्था में वह अपने को इस योग्य बनावेगा ही नहीं कि वह उस हीरे की खोज में जाने लायक न रहे, यदि यह बात उसके हाथ में होगी और वह उस हीरे को वास्तव में हीरा समझता होगा।
भूतनाथ-–बेशक, मगर शिकायत की जगह तो ऐसी अवस्था में हो सकती थी जब वह अपने बिगड़े हुए कॅटीले रास्ते की, जिसके सबब से वह उस हीरे तक नहीं पहुंच सकता था, पुनः सुधारने और साफ करने के लिए परले सिरे का उद्योग करता हुआ दिखाई न देता।
शान्ता--ठीक है, लेकिन जब वह हीरा यह देख रहा है कि उसका अधिकारी या मालिक बिगड़ी हुई अवस्था में भी एक मानिक के टुकड़े को कलेजे से लगाए हुए घूम रहा है और यदि वह चाहता तो उस हीरे को भी उसी तरह रख सकता था, मगर अफसोस, उस हीरे की तरफ जो वास्तव में पत्थर ही समझा गया है, कोई भी ध्यान नहीं देता जो बे-हाथ-पैर का होकर भी उसी मालिक की खोज में जगह-जगह की धूल छानता फिर रहा है जिसने जान-बूझकर उसे पैर में गड़ने वाले कंकड़ की तरह अपने आगे से उठाकर फेंक दिया है और जानता है कि उस पत्थर के साथ, जिसे वह व्यर्थ ही में हीरा कह रहा है, वास्तव में छोटी-छोटी हीरे की कनियां भी चिपकी हुई हैं जो छोटी होने के कारण सहज ही मिट्टी में मिल जा सकती हैं, तब क्या शिकायत की जगह नहीं है !
भूतनाथ--परन्तु अदृष्ट भी कोई वस्तु है, प्रारब्ध भी कुछ कहा जाता है और होनहार भी किसी चीज का नाम है !
शान्ता-—यह दूसरी बात है, इन सभी का नाम लेना वास्तव में निरुत्तर (लाजवाब) होना और चलती बहस को जान-बूझकर बंद कर देना ही नहीं है बल्कि उद्योग ऐसे अनमोल पदार्थ की तरफ से मुंह फेर लेना भी है। अतः जाने दीजिए मेरी यह इच्छा भी नहीं है कि आपको परास्त करने की अभिलाषा से मैं विवाद करती ही जाऊँ,यह तो बात-ही-बात में कुछ कहने का मौका मिल गया और छाती पर पत्थर रखकर जी का उबाल निकाल लिया, नहीं तो जरूरत ही क्या थी।
भूतनाथ--मैं कसूरवार हूँ ओर बेशक कसूरवार हूँ, मगर यह उम्मीद भी तो न थी कि ईश्वर की कृपा से तुम्हें इस दुनिया में इस तरह जीती देखेंगा।
शान्ता--अगर यही आशा या अभिलाषा होती तो अपने परलोकगामी होने की