चतुरी चमार
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शान्ति-पुरी धोती, रेशमी शर्ट और सुनहरे स्लीपर पहने चश्मा लगाए राजा साहब नाव की सैर के लिये चले। रास्ते में तीन ड्योढ़ियाँ पड़ती हैं, हौदा-कसे हाथियों के निकलते आधी और ऊँची; रास्ते के दोनों तरफ़ बड़े-बड़े तालाब; साफ़-सुथरे दूब जमाए पार्क; दोनों बग़ल बटम-पाम की क़तारें; दूर के देशी बग़ीचों से बेला, जूही और कमलों की ख़ुशबू आती हुई। पहली ड्योढ़ी में बैठे हुए राजा साहब के मुसाहब उनके आने पर क़तार बाँधकर भक्ति-पूर्वक प्रणाम करके उद्दंड प्रसन्नता से साथ हो गए। अर्दली, सिपाही, ख़ानसामे प्रासाद से साथ आए थे। पहली, दूसरी और तीसरी ड्योढ़ी के सिपाही क्रमशः किर्च निकाल-निकालकर, राजा साहब को बाएँ रखकर दाहिने हाथ से सलामी देते गए। तीसरी ड्योढ़ी प्रासाद के अहाते को घेरनेवाली जलाशया चौड़ी खाई के किनारे है—खाई के ऊपर से पुल है।
राजा साहब बाहर निकलकर नहर-घाट की तरफ़ चले। स्टीमर, लांच, मोटर-बोट और देशी किश्तीवाले मुसलमान नौकर कप्तान और माझियों ने भी उसी प्रकार क़तार बाँधकर सलाम किया। राजा साहब खुली छतवाली एक अँगरेज़ी कट की देशी किश्ती पर पतवार पकड़कर बैठ गए। पीछे-पीछे मनोरंजन के लिये पले पहलवान-जैसे मुसाहब आकर एक-एक तख्ते पर डाँड सँभालकर बैठे। माझी खड़े रहे। सिपाही और अर्दली नहर के किनारे-किनारे बोट के साथ दौड़ लगाकर रहने के लिये लाँग समेटने लगे। किश्ती चली, किनारे-किनारे सिपाही दौड़े।
डेढ़ मील के फ़ासले पर शक्तिपुर नाम का एक बाग़ी गाँव है। वहाँ विश्वम्भर भट्टाचार्य नाम का एक ब्राह्मण रहता है। राजा साहब कई रोज़ से किश्ती पर हवाख़ोरी करते हैं, देखकर, सोच-विचारकर, लाँग चढ़ाकर, अपने गाँव के पास नहर के बाँध पर खड़ा विश्वम्भर राजा साहब की प्रतीक्षा कर रहा है।