चतुरी चमार
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लाश पर थी। वे पहले फटीचर थे, पर अब अमीर बन गए हैं, दोमंज़िला मकान खड़ा कर लिया है; मोटर पर सैर करते हैं। मुझे देखते हैं, जैसे मेरा-उनका नौकर-मालिक का रिश्ता हो। नक्की स्वरों में कहते हैं—'हाँ, अच्छा आदमी है; ज़रा सनकी है।' फिर बड़े गहरे पैठकर मित्र के साथ हँसते हैं। वे उतनी दूर बढ़ गए हैं, मैं जिस रास्ते पर था, उसी पर खड़ा हूँ। जिसके लिये मेरी इतनी बदनामी हुई, दुनिया से मेरा नाम उठ जाने को हुआ, जो कुछ था, चला गया, उस कविता को जीते-जी मुझे भी छोड़ देना चाहिए। जिसे लोग खुराफ़ात समझते हैं, उसे न लिखना हो तो लोगों की समझ की सच्ची समझ होगी? रतिशास्त्र, वनिता-विनोद, काम-कल्याण में मश्क़ करते कौन देर लगती है? चार किताबों की रूह छानकर एक किताब लिख दूंगा। 'सीता', 'सावित्री', 'दमयंती' आदि की पावन कथाएँ आँखें मूंदकर लिख सकता हूँ। तब बीबी के हाथ 'सीता' और 'सावित्री' आदि देकर बग़ल में 'चौरासी आसन' दबानेवाले दिल से नाराज़ न होंगे। उनकी इस भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने की कोशिश करके ही बिगड़ा हूँ। अब ज़रूर सँभलूँगा। राम, श्याम जो-जो थे पुजने-पुजानेवाले, सब बड़े आदमी थे। बग़ैर बड़प्पन के तारीफ़ कैसी? बिना राजा हुए राजर्षि होने की गुंजायश नहीं, न ब्राह्मण हुए बग़ैर ब्रह्मर्षि होने की है। वैश्यर्षि या शूद्रर्षि कोई था, इतिहास नहीं; शास्त्रों में भी प्रमाण नहीं; अर्थात् नहीं हो सकता। बात यह कि बड़प्पन चाहिए। बड़ा राज्य, बड़ा ऐश्वर्य, बड़े पोथे, तोप, तलवार, गोले-बारूद,बंदूक़-किर्च, रेल-तार, जंगी जहाज़-टारपेडो, माइन-सबमेरीन-गैस, पल्टन-पुलीस, अट्टालिका-उपवन आदि-आदि सब बड़े-बड़े—इतने कि वहाँ तक आँख नहीं फैलती, इसलिये कि छोटे समझें, वे कितने छोटे हैं। चंद्र, सूर्य, वरुण, कुबेर, यम, जयंत, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बाक़ायदा बाहिसाब ईश्वर के यहाँ भी छोटे से बड़े तक मेल मिला हुआ है।