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निराला
पूजा होनी चाहिए, वह नहीं पुजता; जो कुछ पूजता है, वही अधिक पुजने लगता है!"
जाड़ा ज़ोरों का पड़ने लगा। एक रोज़ रात बारह बजे के क़रीब रास्ते से पिल्ले की-सी कूँ-कूँ सुन पड़ी। मैं एक कहानी समाप्त करके सोने का उपक्रम कर रहा था। होटल में और सब लोग सो चुके थे। मैं नीचे रास्ते के सामनेवाले कमरे में रहता था। होटल का दरवाज़ा बंद हो चुका था। पर मैं अपना दरवाज़ा खोलकर बाहर गया। देखता हूँ, एक पाया हुआ मामूली काला कंबल ओढ़े बच्चे को लिए पगली फ़ुटपाथ पर पड़ी है। जब उसे दुनिया का, अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है, तब हाड़ तक छिद जानेवाले जाड़े से काँपकर वह ऐसे करुण स्वर से रोती है। ज़मीन पर एक फटी-पुरानी ओस से भीगी कथरी बिछी, ऊपर पतला कंबल। ईश्वर ने मुझे केवल देखने के लिये पैदा किया है। मेरे पास जो ओढ़ना है, वह मेरे लिये भी ऐसा नहीं कि खुली जगह सो सकूँ। पुराने कपड़े होटल के नौकर माँग लेते हैं—मथुरा मेरा कुर्ता, जो उसके अचकन की तरह होता है, बाँहें काटकर रात को पहनकर सोता है, संगम मेरी धोती से अपनी धोती साँटकर ओढ़ता है, महाराज ने राखी बाँधकर कंबल माँगा था, अभी तक मैं नहीं दे सका। मैं मैं सोचने लगा, यह कंबल पगली को किसने दिया होगा? याद आया, सामने के धनी बंगाली-घराने की महिलाएँ बड़ी दयालु है, कभी-कभी पगली को धोती और उसके लड़के को अँगरेज़ी फ़्राक पहना देती थीं—उन्हीं ने दिया होगा। ऐसे ही विचार में मेरी आँख लग गई।
होटल के मालिक से नाराज़ होकर, गुट्ट बाँधकर एक रोज़ बारह-तेरह बोर्डर निकल गए। सब विद्यार्थी थे। मुझे मानते थे। कुछ कैनिंग कॉलेज के थे, कुछ क्रिश्चियन कॉलेज के। मुझसे उनके प्रमुख दो लॉ क्लास के विद्यार्थियों ने आकर कहा—"जनाब, ऐसा तो हो नहीं सकता कि हम उस महीने का ख़र्च यहाँ देकर, वहाँ पेशगी फिर एक महीने