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निराला



एगा, नौकरों की इस तरह आदत बिगड़ जायगी।" मैं सतत्तर रुपए का चेक मैनेजर साहब को देकर किराए के दूसरे मकान में चला आया। मेरे साथ मेरे मित्र कुँअर साहब भी आए।

एक रोज़ पगली का हाल सुनकर उनके मामा साहब एक नफ़ीस बारीक कंबल पगली को देने के लिये दे गए। मैंने कुँअर साहब से कहा, "रज़ाई ठीक थी, इससे क़ीमत में भी ज़्यादा नहीं होगी, और पगली का जाड़ा भी छूट जायगा।" कुँअर साहब अपनी रज़ाई देने के लिये देकर बड़े दिन की छुट्टियों में घर गए। मैं रज़ाई लेकर पगली को उढ़ा आया। दो-तीन दिन बाद मेरे मित्र श्रीयुत नैथाणी मिले। कहा—"पगली अस्पताल भेज दी गई। डॉक्टर का कहना है, उसे डबल निमोनिया हो गया है। बचेगी नहीं। उसका बच्चा श्रीदयानंद अनाथालय भेज दिया गया है। पगली बच्चे को छोड़ती न थी। पगली को ले जानेवाले एक्के की बग़ल से निकलती हुई मोटर के धक्के से एक स्वयंसेवक के पैर में सख्त चोट आ गई है, इसीने सबसे पहले गंदगी से न डरकर पगली को उठाया था!"

एक रोज़ सुबह उसी तरह बग़ल में मुट्ठी दबाए हुए संगम ने आकर कहा, "बाबू,आपका चेक भुनाकर मैनेजर साहब भग गए हैं।"

"नहीं, संगम," मैंने समझाया, "मैनेजर साहब बड़े अच्छे आदमी हैं। घर रुपए लेने गए हैं। उन्हें कई सौ रुपए देने हैं—लकड़ी, घी, आटा, दूध और किराए के। लौटकर रुपए दे देंगे।" संगम वैसा ही फिर हँसा।

 

स्वामी सारदानंदजी महाराज और मैं


उन दिनों १९२१ ई॰ थी। एक साधारण-से विवाद पर विशद महिषा दल-राज्य की नौकरी नामंज़ूर-इस्तीफ़े पर भी छोड़कर मैं देहात