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चतुरी चमार



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फिर इतने चमत्कार इधर दस वर्षों में देखे कि अब बड़े-बड़े कवियों तथा दार्शनिकों की चमत्कारोक्तियाँ पढ़कर हँसी आती है। वह मंत्र भी तीन साल हुए, आग-सा चमकता हुआ कुछ दिनों तक सामने आया। उसे मैंने पढ़ लिया है।

 

सफलता


जो हवा दिए के जलते रहने की वजह है, वह दिए को बुझा भी देती है। आभा के सस्नेह अकलुष प्राणों के पावन प्रदीप को पति की जिस निश्चल समीर ने साल-भर तक जला रक्खा था, वह साल-भर से उसे बुझाकर, उसकी पृथ्वी से दूर, अन्तरिक्ष की ओर तिरोहित हो गई है। साल ही भर में सुहाग का काजल उस दीपक-प्रकाश के ऊपर, रत्नार आँखों में, प्रिय-दर्शन के अंजन-रूप नहीं रह गया। आभा आज की शरत् की तरह अपनी सारी रंगीनियों को धोकर शुभ्र हो रही है—श्वेत शेफालीसी रँगे प्रभात के रश्मि-पात-मात्र से वृंतच्युत—जैसे केवल देवार्चन के लिये चुनी हुई। पर, प्राणों के नीचे, डंठल में, जो रंग लगा हुआ है, वह तो शरत् का नहीं—वसंत का है। उसीके ऊपर वसंत के बादवाले महीनों के ये दल जैसे शरत् की आभा से शुभ्र हो रहे हैं। लालसा-चपल क्या कोई उस पूर्ण विकसित स्खलित शेफालिका-राशि को केसरिए सुगंधरंग से अपनी वसंत की पाग रँगने के लिये वृक्ष के नीचे से चुपचाप चुन ले जायगा? हाय, यह वह सत्य शेफालिका तो नहीं! यह तो केवल देव-चरणों पर चढ़ने के लिये है—माला होकर हृदय पर या रंग बनकर आँखों पर चढ़ने के लिये नहीं! तभी आभा गाँव के किनारे धुले धवल शिवालय में देवता-पदों पर प्रत्यह पुष्प-स्वरूप अर्पित होने के लिये जाती