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निराला



हरण था। स्वामीजी के भारतीय कान ऐसे न थे, जो अँगरेज़ी बाजे के विवादी स्वरों से भड़ककर उसे सङ्गीत स्वीकार ही न करते। वह भावस्थ गुरुत्व से मेरे सामने आये। मुझे ऐसा जान पड़ा, एक ठंडी छाँह में मैं डूबता जा रहा हूँ। फिर मेरे गले में अपनी उँगली से एक बीजमंत्र लिखने लगे। मैंने मन को गले के पास ले जाकर क्या लिख रहे हैं, पढ़ने की बड़ी चेष्टा की, पर कुछ मेरी समझ में न आया।

परोक्ष रीति से ध्यान-धारणा के लिये स्वामीजी मुझे कभी-कभी याद दिला देते थे, पर मुझे यह धुन थी कि अब देखना है, गलेवाला मंत्र क्या गुल खिलाता है। पूजा-पाठ जो कुछ कभी-कभी करता था, वह भी बन्द कर दिया। मुझे कुछ ही दिनों में जान पड़ने लगा, मेरा निचला हिस्सा ऊपर और ऊपरवाला नीचे हो गया है, और रामकृष्ण-मिशन के साधु मुझे खींच रहे हैं। अजीब घबराहट हुई। मैंने सोचा, इन साधुओं ने मुझ पर वशीकरण किया है। तब 'समन्वय' के कार्यकर्त्ता 'उद्वोधन' छोड़कर 'मतवाला'-ऑफ़िस में (तब 'मतवाला' न निकलता था, बालकृष्ण प्रेस था, मालिक 'मतवाला' के सम्पादक बाबू महादेव-प्रसादजी सेठ थे) किराए के कमरों में रहते थे। मैं भी उनके साथ अलग कमरे में रहता था। महादेव बाबू से मैंने कहा, ये साधु लोग मुझे जादूगर जान पड़ते हैं। महादेव बाबू गम्भीर होकर बोले, यह आपका भ्रम है। मैंने कुछ न कहा, पर मुझे भ्रम होता, तो विश्वास भी होता। एक रोज़ ऐसा हुआ कि उन्हीं साधुओं में से एक की मेरे पास आकर यही हालत हुई। यह दर्शन-शास्त्र के एम्॰ ए॰ हैं। आजकल अमेरिका में प्रचार कर रहे हैं। जब खिंचने लगे, तो बोले—"पंडितजी, क्या आप वशीकरण जानते हैं?" मैंने मन में कहा—"हूँ।" खुलकर बोला—"मैं मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन सबमें सिद्ध हूँ।"

इसके बाद एक दिन स्वप्न देखा—ज्योतिर्मय समुद्र है, श्यामा की बाँह पर मेरा मस्तक, मैं लहरों में हिल रहा हूँ।