पृष्ठ:चतुरी चमार.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

६६



निराला



श्वेत शिव को देखने लगी। प्राणों में कैसी गुदगुदी हुई, बोली—"आप मुझे भगाना चाहते हैं?"

"नहीं।" नरेन्द्र का कंठ बिलकुल स्थिर था।

आभा ने फिर नरेन्द्र को देखा—"गाँववाले आपको आवारा कहते हैं।" कंठ में सहानुभूति बज उठी।

"यह भ्रम गाँववालों को बराबर रहेगा।" नरेन्द्र की आँखों से बिजली निकल रही थी।

"मेरे लिये आपकी जैसी आज्ञा हो—"

"हाँ, मैं तुम्हें वही अधिकार लेने के लिए कहता हूँ, जो तुमसे छिन चुका है।"

अज्ञात आँखों से आभा ने देखा।

"जिस दुनिया ने तुम्हें छोटी, अधम, भाग्य से रहित कहा, क्या उसे तुम नहीं समझाना चाहती कि तुम बहुत बड़ी—बहुत बड़ी, भाग्य से भरी हुई हो?"

"ऐसा तो अब क्या होगा!"

"होगा आभा। वही रास्ता देखकर मैं आ रहा हूँ। विश्वास करो, और आज से दुनिया को ठोकर मार दो—इसे जो जितनी ठोकरें लगा सका, इसकी आँखों में वह उतना ही बड़ा हुआ—उतना ही इसने उसके पैर पकड़े।"

ध्वनि जैसी होती है, प्रतिध्वनि भी वैसी ही होती है। आभा इस सम्पूर्ण शक्ति को भरकर एक दूसरे रूप में बदल गई। तन्मय खड़ी सुनती रही—

"यह संसार तुम्हारे लिये जैसा था, मेरे लिये भी वैसा ही था। तुम दुःख को समझती थीं, मैं न समझ पाता था, या समझकर भी न समझता था। अब हमें इस संसार को वैसे ही दुःख के भीतर से उचित शिक्षा देनी है।"