पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१२८

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तीसरा हिस्सा
 

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तीसरा हिस्सा | एक बुढ़िया ने उठ कर किवाड खोला शौर लाली को अन्दर करके फिर बन्द कर लिया ! उस बुढिया की उम्र लगभग अस्मी वर्ष के होगी, नेकी और रहमदिल उसके चेहरे पर झलक रही थी । सिर्फ छोटी सी कौठरी, थोड़े से जरूरी सामान, और मामूली चारपाई पर ध्यान देने से मालूम होता था कि बुढिया लाचारों से अपनी जिन्दगी बिता रही है। लाल ने दोनों पैर छू कर प्रणाम किया और उस बुढिया ने पीठ पर मुद्यत से हाथ फेर कर बैठाने के लिए कहा। | लाली० । ( सन्दूकडी श्रागे रख कर) यही है ? चुहिया ० } क्या ले श्राई १ हा ठीक है, वेशक यही है । अब आगे जो कुछ कीजियो बहुत सम्हाल के ! ऐसा न हो कि इस आखिरी मय में मुझे कल लगे । लाली० | जहाँ तक हो सकेगा बड़ी होशियारी से काम करू, श्राप अशिचद दीजिए कि मेरा उद्योग सुफल हो । बुढिया० । ईश्वर तुझे इस नेकी का यदला दे, वहीं कुछ डर तो नहीं मालूम हुआ है। लल० 1 दिल कटा करके इसे ले श्राई, नहीं तो मैंने जो कुछ देखा भीते जी भूलने योग्य नहीं, अभी तो फिर एक दफे देखना सच होगा । ओफ, अभी तक कलेला कापता है ।। गुढिया० । ( मुस्कुरा फर ) बेशक वह ताज्य के सामान इकठे हैं। मर डरने की कोई बात नहीं, जा ईश्वर तेरी मदद करे ।। | लाली ने उस सन्दूकधी को उठा लिया और अपने खास घर में को। सेकड़ी को हिफाजत से रख कर पञ्च पर ना लेट रही । मधेरे उठ कर किशोरी के कमरे में गई । किशोरी० { मुझे रात भर तुरा वयाल अनी र शेर घटी घट्ट उठ कर बाहर, जाती थी कि कहीं से गुल शोर की प्रावन तो नहीं प्रातः । लाली० । ईश्वर की दया से में काम में किसी तरह का विप्न