पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
पहिला हिस्सा
८०
 

________________

पहिला हिस्सा ८० इन्द्रजीतसिंह आज तमाम रात सोच विचार में पड़े रहे | इनके रग ढंग से माधवी का भी माथा ठनका और वह भी रात मर चारो तरफ खयाल दौठाती रही । तेरहवाँ बयान दूसरे दिन खा पी कर निश्चिन्त होने बाद दोपहर को जब दोनों एकान्त में बैठे तो इन्द्रजीतसिंह ने माधवी से कहा : अब मुझमें सन्न नहीं हो मकता, आज तुम्हारा ठीक ठीक हाल => विना भी है मगर र इससे दढ र निश्चित रूः समय भी दूसरा न मिलेगा । माधवी० | जी हाँ, अनि में जरूर अपना हाल कहूँगी । इन्द्रनीत० । तो बस कह लो, अब देर काहे की है ? पहिले यह बतायो कि तुम्हारे में बाप कहाँ है शोर यह सरजमीन किस इलाके में है। दिसके अन्दर में बेहोश करके लाया गया ? | माधवं० } यह इलाका गयाजो का है, यहाँ के राजा की मैं लडकी हैं, इस समय मैं खुद मालिक है, माँ चाप को मरे पाच वर्षे हो गये ।। इन्द्र० } शोफ शोह, तो मैं गयाजी के इलाके में श्री पहुची ! (कुछ सोच कर ) तो तुम मेरे लिये चुनार गई थीं !! | माघची० । जी हाँ मैं चुनार गयी थी, और यह अगूठी जो आपके हार्य में है सौदागर को मार्फत मैने ही आपके पास भेजी थी । | इन्द्र० | हाँ ठीक है, तो मालूम पता है फिशोरी भी तुम्हारा ही नाम है। किशोरी के नाम नै माघवी को चाफा दिया अौर धवराट में डाल दिया । मालूम हुग्रा जैसे उसकी छाती में किसी ने बड़े जोर से मुक्का गोरा हो। फौरन उसका पयाल उस सुरंग पर गया जिसके अन्दर से गीले कपड़े पहने हुए इन्द्रजीतसिंह निक्ले थे । यह सोचने लगी, “इनका उस