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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति ૨ मुह पर देखा था | अब बड़ी ही मुश्किल हुई, मैं इनको यहीं से बाहर अपने महल में भ नहीं ले जा सकती क्योंकि वह चाण्डाल सुनेगा तो पूरी दुरगत कर लेगा, और न मैं उस पर किसी तरह का दबाव ही डाल सकती हूं क्योंकि राज्य का काम बिल्कुल उसी के हाथ में है, जब चाहे चौपट कर डाले ! जब राज्य ही नष्ट हुआ तो फिर यह सुख कहाँ ? अभी तक तो इन्द्रजीतसिंह का हाल उसे बिल्कुल नहीं मालम है मगर अव त्या होगा सो नहीं कह सकती !! | माधवी घण्टे भर तक बैठो अपनी चालाक सखियों से राय मिलाती रही, श्राषिर जो कुछ फरना था उसे निश्चय कर वहा से उठी और उस कमरे में पहुँची जिसमें इन्द्रजीतसिंह को छोड गई थी। अब तक माधवी अपनी सखियों के पास बैठी बातचीत करती रही। तप तक हमारे इन्द्रजीतसिंह भी अपने ध्यान में डूबे रहे । अब माधवी के साथ उन्हें कैसा बर्ताव करना चाहिए और किस चालाकी से अपना पल्ला छुड़ाना चाहिये सब उन्होंने सोच लिया और उसी ढग पर चलने लगे । जब माधवी इन्द्रजीतसिंह के पास आई तो उन्होंने पूछा, “क्य । एकदम घडा कर कहा चली गई थी ? माधवी० । न मालूम क्यों जी मिचला गया था, इसीलिये दौडी चली गई । कुछ गरमी भी मालूम होने लगी, जाकर एक के की तब होश ठिकाने हुए । इन्द्र० । अव तबीयत कैसी है ? गधवी० । अव तो अच्छी है।। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने कुछ छेडछाड न को शीर हँसी खुशी में । दिन बिता दिया कि जो कुछ करना था वह तो दिल में था बाहिर में, तकरार करके माधपी के दिल में शक पैदा करना मुनासिने न समझा। माधवी या तो मामून ही था कि वह शाम को विराग जले याद इन्द्रजीतमि से पू पर दो घण्टे के लिये न मालूम किस ग्रह से कहीं जाया