पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०१
द्वितीय अंक
 


फिलि॰—दारा की कन्या! नहीं कुमारी, सम्राज्ञी कहो।

कार्ने॰—असम्भव है फिलिप्स! ग्रीक लोग केवल देशों को विजय करके समझ लेते हैं कि लोगों के हृदयों पर भी अधिकार कर लिया। वह देवकुमारी-सी सुन्दर बालिका सम्राज्ञी कहने पर तिलमिला जाती है। उसे यह विश्वास है कि वह एक महान् साम्राज्य की लूट में मिली हुई दासी है, प्रणय-परिणीती पत्नी नहीं।

फिलि॰—कुमारी! प्रणय के सम्मुख क्या साम्राज्य तुच्छ है?

कार्ने॰—यदि प्रणय हो।

फिलि॰—प्रणय को तो मेरा हृदय पहचानता है।

कार्ने॰—(हँसकर)—ओहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है!

फिलि॰—कुमारी, क्या तुम मेरे प्रेम की हँसी उड़ाती हो?

कार्ने॰—नहीं सेनापति! तुम्हारा उत्कृष्ट प्रेम बड़ा भयानक होगा, उससे तो डरना चाहिए।

फिलि॰—(गम्भीर होकर)—मैं पूछने आया हूँ कि आगामी युद्धों से दूर रहने के लिये शिविर की सब स्त्रियाँ स्कन्धावार में सम्राज्ञी के साथ जा रही हैं, क्या तुम भी चलोगी?

कार्ने॰—नहीं, संभवतः पिताजी को यहीं रहना होगा, इसलिये मेरे जाने की आवश्यकता नहीं।

फिलि॰—(कुछ सोचकर)—कुमारी! न जाने फिर कब दर्शन हो, इसलिए एक बार इन कोमल करो को चूमने की आज्ञा दो।

कार्ने॰—तुम मेरा अपमान करने का साहस न करो फिलिप्स।

फिलि॰—प्राण देकर भी नहींं कुमारी! परन्तु प्रेम अन्धा है।

कार्ने॰—तुम अपने अन्धेपन से दूसरे को ठुकराने का लाभ नहीं उठा सकते फिलिप्स!

फिलिप्स—(इधर-उधर देखकर)—यह नहीं हो सकता—

[कार्नेलिया का हाथ पकड़ना चाहता है, वह चिल्लाती है—रक्षा करो! रक्षा करो!—चन्द्रगुप्त प्रवेश करके फिलिप्स की गर्दन

[38]