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चन्द्रगुप्त
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पकड़ कर दबाता है, वह गिरकर क्षमा मांगता है, चन्द्रगुप्त छोड़ देता है]

कार्ने॰—धन्यवाद आर्य्यवीर!

फिलि॰—(लज्जित होकर)—कुमारी, प्रार्थना करता हूँ कि इस घटना को भूल जाओ, क्षमा करो।

कार्ने॰—क्षमा तो कर दूँगी, परन्तु भूल नहींं सकती फिलिप्स! तुम अभी चले जाओ।

[फिलिप्स नतमस्तक जाता है]

चन्द्रगुप्त—चलिये, आपको शिविर के भीतर पहुँचा दूँ।

कार्ने॰—पिताजी कहाँ है? उनसे यह बात कह देनी होगी, यह घटना...नहीं, तुम्हीं कह देना।

चन्द्रगुप्त—ओह! वे मुझे बुला गये हैं, मैं जाता हूँ, उनसे कह दूँगा।

कार्ने॰—आप चलिये, मैं आती हूँ।

[चन्द्रगुप्त का प्रस्थान]

कार्ने॰—एक घटना हो गई, फिलिप्स ने विनती की उसे भूल जाने की, किन्तु उस घटना से और भी किसी का सम्बन्ध है, उसे कैसे भूल जाऊँ। उन दोनों में श्रृंगार और रौद्र का संगम है। वह भी आह, कितना आकर्षक है! कितना तरंग-सकुल हैं! इसी चन्द्रगुप्त के लिए, न उस साधु ने भविष्यवाणी की हैं―भारत-सम्राट होने की! उसमें कितनी विनयशील वीरता हैं।

[प्रस्थान]

[कुछ सैनिकों के साथ सिकन्दर का प्रवेश]

सिकन्दर—विजय करने की इच्छा क्लान्ति से मिलती जा रही है। हम लोग इतने बड़े आक्रमण के समारम्भ में लगे हैं और यह देश जैसे सोया हुआ है, लड़ना जैसे इनके जीवन का उद्वेगजनक अंश नहीं। अपने ध्यान में दार्शनिक के सदृश निमग्न हैं। सुनते हैं, पौरव ने केवल झेलम