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में स्थित जातियों को भारत में आकर उपनिवेश स्थापित करने का उत्साह हुआ। दार्शनिक मत के प्रबल प्रचार से भारत में धर्म, समाज और साम्राज्य, सब मे विचित्र और अनिवार्य परिवर्तन हो रहा था । बुद्धदेव के दो-तीन शताब्दी पहले ही दार्शनिक मतो ने, उन विशेष बन्धनो को, जो उस समय के आर्यों को उद्विग्त कर रहे थे, तोड़ना आरम्भ किया। उस समय ब्राह्मण वल्कलधारी होकर काननों में रहना ही अच्छा न समझते, वरन् वे भी राज्यलोलुप होकर स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्यों के अधिकारी बन बैठे। क्षत्रियगण राजदण्ड को बहुत भारी तथा अस्त्र-शस्त्रों को हिंसक समझकर उनकी जगह जप-चक्र हाथ में रखने लगे । वैश्य लोग भी व्यापार आदि मे मनोयोग न देकर, धर्मा- चार्य की पदवी को सरल समझने लगे । और तो क्या, भारत के प्राचीन दास भी अन्य देशो से आई हुई जातियों के साथ मिल कर दस्यु-वृत्ति करने लगे।

वैदिक धर्म पर क्रमश बहुत-से आघात हुए, जिनसे वह जर्जर हो गया । कहा जाता है, कि उस समय धर्म की रक्षा करने में तत्पर ब्राह्मणों ने अर्बुदगिरि पर एक महान् यज्ञ करना आरम्भ किया और उस यज्ञ का प्रधान उद्देश्य वर्णाश्रम धर्म तथा वेद की रक्षा करना था। चारो ओर से दल-के-दल क्षत्रियगण--जिनका युद्ध ही आमोद था--जुटने लगे और वे ब्राह्मण धर्म को मानकर अपने आचार्यों को पूर्ववत् सम्मानित करने लगे। जिन जातियो को अपने कुल की क्रमागत वश्मर्य्यादा भूल गई थी, वे तपस्वी और पवित्र ब्राह्मणों के यज्ञ से संस्कृत होकर चार जातियों में विभाजित हुई । इनका नाम अग्निकुल हुआ । सम्भवत इसी समय में तक्षक या नागवंशी भी क्षत्रियों की एक श्रेणी में गिने जाने लगे।

यह धर्म-क्रान्ति भारतवर्ष में उस समय हुई थी, जब जैनतीर्थकर पाश्र्वनाथ हुए, जिनका समय ईसा से ८०० वर्ष पहले माना जाता है। जैन लोगो के मन में भी इस समय में विशेष अन्तर नहीं है । ईसा