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[मालव में सिहरण के उद्यान का एक अंश]
मालविका—(प्रवेश करके)—फूल हँसते हुए आते हैं, फिर मकरद गिरा मुरझा जाते हैं, आँसू से धरणी को भिगो कर चले जाते हैं! एक स्निग्ध समीर का झोंका आता है, निश्वास फेंक कर चला जाता हैं। क्या पृथ्वी तल रोने ही के लिए है? नहीं, सब के लिए एक ही नियम तो नहीं। कोई रोने के लिए हैं तो कोई हँसने के लिए—(विचारती हुई)—आजकल तो छुट्टी-सी है, परन्तु एक विचित्र विदेशियों का दल यहाँ ठहरा हैं, उनमें से एक को तो देखते ही डर लगता है। लो—वह युवक आ गया!
[सिर झुका कर फूल संवारने लगती है—ऐन्द्रजालिक के वेश में चन्द्रगुप्त का प्रवेश]
चन्द्र॰—मालविका!
माल॰—क्या आज्ञा है?
चन्द्र॰—तुम्हारे नागकेसर की क्यारी कैसी है?
माल॰—हरी-भरी।
चन्द्र॰—आज कुछ खेल भी होगा, देखोगी?
माल॰—खेल तो नित्य ही देखती हूँ। न जाने कहाँ से लोग आते हैं, और कुछ-न-कुछ अभिनय करते हुए चले जाते हैं। इसी उद्यान के कोने से, बैठी हुई सब देखा करती हूँ।
चन्द्र॰—मालविका, तुमको कुछ गाना आता है?
माल॰—आता तो है, परन्तु.......
चन्द्र॰—परन्तु क्या?
माल॰—युद्धकाल है। देश में रणचर्चा छिड़ी है। आजकल मालव-स्थान में कोई गाता-बजाता नहीं।
चन्द्र॰—रण-भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुन
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