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द्वितीय अंक
 

फिर ऊपर आती है, उसे भी मारती हैं, तीसरे बार स्वयं सिकन्दर ऊपर आता है। तीर का वार बचा कर दुर्ग में कूदता है और अलका को पकड़ना चाहता है। सहसा सिंहरण का प्रवेश; युद्ध]

सिंह॰—(तलवार चलाते हुए) तुमको स्वयं इतना साहस नहीं करना चाहिए सिकन्दर! तुम्हारा प्राण बहुमूल्य है।

सिकन्दर—सिकन्दर केवल सेनाओं को आज्ञा देना नहीं जानता। बचाओ अपने को! (भाले का वार)

[सिंहरण इस फुरती से बरछे को ढाल पर लेता है कि वह सिकन्दर के हाथ से छूट जाता है। यवनराज विवश होकर तलवार चलाता है; किन्तु सिंहरण के भयानक प्रात्याघात से घायल होकर गिरता है। तीन यवन-सैनिक कूद कर आते हैं, इधर से मालव सैनिक पहुँचते हैं।]

सिंह॰—यवन! दुस्साहस न करो! तुम्हारे सम्राट् की अवस्था शोचनीय है, ले जाओ, इनकी शुश्रूषा करो।

यवन—दुर्ग-द्वार टूटता है और अभी हमारे वीर सैनिक इस दुर्ग को मटियामेट करते हैं।

सिंह॰—पीछे चन्द्रगुप्त की सेना है मूर्ख! इस दुर्ग में आकर तुम सब बन्दी होंगे। ले जाओ, सिकन्दर को उठा ले जाओ, जब तक और मालवों को यह न विदित हो जाय कि यही वह सिकन्दर है।

मालव सैनिक—सेनापति, रक्त का बदला! इस नृशंस ने निरीह जनता का अकारण वध किया है! प्रतिशोध?

सिंह॰—ठहरो, मालव वीरों! ठहरो। यह भी एक प्रतिशोध है। यह भारत के ऊपर एक ऋण था, पर्वतेश्वर के प्रति उदारता दिखाने का यह प्रत्युत्तर है। यवन! जाओ, शीघ्र जाओ!

[तीन यवन सिकन्दर को लेकर जाते हैं, घबराया हुआ एक सैनिक आता है]

सिह॰—क्या है?

सैनिक—दुर्ग-द्वार टूट गया, यवन सेना भीतर आ रही है।