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तृतीय अंक
 


कार्ने॰—परन्तु मैं कितने दूर देश की हूँ। स्मृतियाँ ऐसे अवसर पर उदण्ड हो जाती हैं। अतीत के कारागृह में बन्दिनी स्मृतियाँ अपने करुण निश्वास की शृंखलाओं को झनझनाकर सूचीभेद्य अन्धकार में सो जाती है।

चन्द्र॰—ऐसा हो तो भूल जाओ शुभे! इस केन्द्रच्युत जलते हुए उल्कापिंड की कोई कक्षा नहीं। निर्वासित, अपमानित प्राणों की चिन्ता क्या?

कार्ने॰—नहीं चन्द्रगुप्त, मुझे इस देश से जन्मभूमि के समान स्नेह होता जा रहा है। यहाँ के श्यामल कुंज, घने जंगल, सरिताओं की माला पहने हुए शैल-श्रेणी, हरी-भरी वर्षा, गर्मी की चाँदनी, शीत-काल की धूप, और भोले कृषक तथा सरल कृषक-बालिकायें, बाल्य-काल की सुनी हुई कहानियों की जीवित प्रतिमाएँ है। यह स्वप्नों का देश, यह त्याग और ज्ञान का पालना, यह प्रेम की रंगभूमि—भारतभूमि क्या भुलाई जा सकती है? कदापि नहीं। अन्य देश मनुष्यो की जन्मभूमि हैं, यह भारत मानवता की जन्मभूमि हैं।

चन्द्र॰—शुभे, मैं यह सुनकर चकित हो गया हूँ।

कार्ने॰—और मैं मर्म्माहत हो गई हूँ चन्द्रगुप्त, मुझे पूर्ण विश्वास था कि यहाँ के क्षत्रप पिताजी नियुक्त होंगे और मैं अलेग्जेंद्रिया में समीप ही रहकर भारत को देख सकूँगी। परन्तु वैसा न हुआ, सम्राट् ने फिलिप्स को यहाँ का शासक नियुक्त कर दिया हैं।

[अकस्मात् फिलिप्स का प्रवेश]

फिलि॰—तो बुरा क्या है कुमारी! सिल्यूकस के क्षत्रप न होने पर भी कार्नेलिया यहाँ की शासक हो सकती हैं। फिलिप्स अनुचर होगा―(देखकर)—फिर वही भारतीय युवक!

चन्द्र॰—सावधान! यवन! हम लोग एक बार एक-दूसरे की परीक्षा ले चुके हैं।

फिलि॰—उँह! तुमसे मेरा सम्बन्ध ही क्या है, परन्तु ..

च॰ १०