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चन्द्रगुप्त
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चाणक्य—पौरव, तामस त्याग से सात्त्विक ग्रहण उत्तम है। वह दान न था, उसमें कोई सत्य नहीं। तुम उसे ग्रहण करो।

पर्व॰—तो क्या आज्ञा हैं?

चाणक्य—पीछे बतलाऊँगा। इस समय मुझे केवल यही कहना है कि सिंहरण को अपना भाई समझो और अलका को बहन।

[वृद्ध गांधार-राज का सहसा प्रवेश]

वृद्ध॰—अलका कहाँ है, अलका?

पर्व॰—कौन हो तुम वृद्ध?

चाणक्य—मैं इन्हे जानता हूँ―वृद्ध गांधार-नरेश।

पर्व॰—आर्य्य, मैं पर्वतेश्वर प्रणाम करता हूँ।

वृद्ध॰—मैं प्रणाम करने योग्य नहीं, पौरव! मेरी सन्तान से देश का बड़ा अनिष्ट हुआ है। आम्भीक ने लज्जा की यवनिका में मुझे छिपा दिया है। इस देशद्रोही के प्राण केवल अलका को देखने के लिए बचे हैं, उसी से कुछ आशा थी। जिसको मोल लेने में लोभ असमर्थ था, उसी अलका को देखना चाहता हूँ और प्राण दे देना चाहता हूँ!―(हांफता है)

चाणक्य—क्षत्रिय! तुम्हारे पाप और पुण्य दोनों जीवित है। स्वस्तिमती अलका आज सौभाग्यवती होने जा रही है, चलो कन्या-सप्रदान करके प्रसन्न हो जाओ।

[चाणक्य वृद्ध गांधार-नरेश को लिवा जाता है]

पर्व॰—जाऊँ? किधर जाऊँ? चाणक्य के पीछे?―(जाता है)

[कार्नेलिया और चन्द्रगुप्त का प्रवेश]

चन्द्र॰—कुमारी, आज मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

कार्ने॰—किस बात की?

चन्द्र॰—कि मैं विस्मृत नहीं हुआ।

कार्ने॰—स्मृति कोई अच्छी वस्तु है क्या?

चन्द्र॰—स्मृति जीवन का पुरस्कार है सुन्दरी!