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तृतीय अंक
 


वर॰—महाराज! सावधान! यह अबला है, स्त्री है।

नन्द—यह मैं जानता हूँ कात्यायन! हटो।

वर॰—आप जानते हैं, पर इस समय आपको विस्मृत हो गया है।

नन्द—तो क्या मैं तुम्हें भी इसी कुचक्र में लिप्त समझूँ?

वर॰—यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है, और किसी का दास न रहना मेरी इच्छा पर, मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ।

नन्द—(वररुचि का छुरा उठा कर)—विद्रोह! ब्राह्मण हो न तुम; मैंने अपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ। परन्तु ठहरो। प्रतिहार!

[प्रतिहार सामने आता है]

नन्द—इसे बन्दी करो। और इस स्त्री के साथ मौर्य्य के समीप पहुँचा दो।

[प्रहरी दोनों को बन्दी करते हैं]

वर॰—नन्द! तुमहारे पाप का घड़ा फूटना ही चाहता है। अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी! न्याय का गला घोंट कर तुम उस भीषण पुकार को नहीं दबा सकोगे जो तुम तक पहुँचती है अवश्य, किनतु चाटुकारों द्वारा और ही ढंग से।

नन्द—बस ले जाओ। (सब का प्रस्थान)

नन्द—(स्वगत) क्या अच्छा नहीं किया? परन्तु ये सब मिले है, जाने दो! (एक प्रतिहार का प्रवेश) क्या है?

प्रतिहार—जय हो देव! एक संदिग्ध स्त्री राज-मन्दिर में घूमती हुई पकड़ी गयी है। उसके पास अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्र मिला है।

नन्द—अभी ले आओ।

[प्रतिहार जाकर मालविका को साथ लाता है]

नन्द—तुम कौन हो?

माल॰—मैं एक स्त्री हूँ, महाराज!

नन्द—पर तुम यहाँ किसके पास आयी हो?