पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/१७०

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नन्द की रंगशाला—सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश में

नन्द—अमात्य राक्षस, यह कौन-सी मंत्रणा थी? यह पत्र तुम्हीं ने लिखा है?

राक्षस—(पत्र लेकर पढ़ता हुआ) —"सुवासिनी, उस कारागार से शीघ्र निकल भागो, इस स्त्री के साथ मुझसे आकर मिलो। मैं उत्तरापथ में नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लियाजायगा" इत्यादि। (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य, मैंने तो यह नहीं लिखा! यह कैसा प्रपंच है,—और किसी का नहीं, उसी ब्राह्मण चाणक्य का महाराज, सतर्क रहिए, अपने अनुकूल परिजनों पर भी अविश्वास न कीजिए। कोई भयानक घटना होने वाली है, यह उसी का सूत्रपात है।

नन्द—इस तरह से मैं प्रतारित नहीं किया जा सकता, देखो य हतुम्हारी मुद्रा है। (मुद्रा देता है)

(राक्षस देखकर सिर नीचा कर लेता है।]

नन्द—कृतघ्न! बोल, उत्तर दे!

राक्षस—मैं कहूँ भी, तो आप मानने ही क्यों लगे!

नन्द—तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा, प्रतिहार!

(राक्षस बन्दी किया जाता है। नागरिकों का प्रवेश।)

[राक्षस को श्रृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उन सबों में उत्तेजना]

नाग॰—सम्राट्‌! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है कि नागरिक राक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचार है, उनका फिर से निराकरण होना चाहिए।

नन्द—क्या! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है?