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प्रथम अंक
 


चाणक्य—एक बात कह कर महाराज!

राक्षस—क्या?

चाणक्य—यवनों की विकट वाहिनी निषध-पर्वतमाला तक पहुँच गई हैं। तक्षशिलाधीश की भी उसमें अभिसंधि है। सम्भवतः समस्त आर्य्यावर्त्ता पादाक्रान्त होगा। उत्तरापथ में बहुत-से छोटे-छोटे गणतंत्र है, वे उस सम्मिलित पारसीक यवन-बल को रोकने में असमर्थ होंगे। अकेले पर्वतेश्वर ने साहस किया हैं, इसलिए मगध को पर्वतेश्वर की सहायता करनी चाहिए।

कल्याणी—(प्रवेश करके)—पिताजी, मैं पर्वतेश्वर के गर्व की परीक्षा लूँगी। मैं वृषल-कन्या हूँ। उस क्षत्रिय को यह सिखा दूँगी कि राजकन्या, कल्याणी किसी क्षत्राणी से कम नहीं। सेनापति को आज्ञा दीजिए कि आसन्न गांधार-युद्ध में मगध की एक सेना अवश्य जायं और मैं स्वयं उसका संचालन करूँगी। पराजित पर्वतेश्वर को सहायता देकर उसे नीचा दिखाऊँगी।

[नन्द हँसता है]

राक्षस—राजकुमारी, राजनीति महलों में नहीं रहती, इसे हम लोगो के लिए छोड़ देना चाहिए। उद्धत पर्वतेश्वर अपने गर्व का फल भोगे और ब्राह्मण चाणक्य! परीक्षा देकर ही कोई साम्राज्य-नीति समझ लेने का अधिकारी नहीं हो जाता।

चाणक्य—सच है बौद्ध अमात्य; परन्तु यवन आक्रमणकारी बौद्ध और ब्राह्मण का भेद न रखेंगे।

नन्द—वाचाल ब्राह्मण! तुम अभी चले जाओ, नहीं तो प्रतिहार तुम्हें धक्के देकर निकाल देंगे।

चाणक्य—राजाधिराज! मैं जानता हूँ कि प्रमोद में मनुष्य कठोर सत्य का भी अनुभव नहीं करता, इसीलिए मैंने प्रार्थना नहीं की--अपने अपहृत ब्राह्मस्व के लिए मैंने भिक्षा नहीं माँगी। क्यों? जानता था कि वह मुझे ब्राह्मण होने के कारण न मिलेगी; परन्तु जब राष्ट्र के लिए...

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