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प्रथम अंक
 

वररुचि––जिसने ‘श्वयुवमघोनामतद्धिते’ सूत्र लिखा है, वह केवल वैयाकरण ही नही, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना!

चाणक्य––यह मेरी समझ में नहीं आता, मैं कुत्ता, साधारण युवक और इन्द्र को कभी एक सूत्र में नहीं बाँध सकता। कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, इन्द्र, इन्द्र! सुनो वररुचि! मैं कुत्ते को कुत्ता ही बनाना चाहता हूँ। नीचो के हाथ में इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता हैं, उसे मै भोग रहा हूँ। तुम जाओ!

वररुचि––क्या मुक्ति भी नहीं चाहते।

चाणक्य––तुम लोगों के हाथ से वह भी नही।

राक्षस––अच्छा तो फिर तुम्हे अन्धकूप में जाना होगा।

[ चन्द्रगुप्त का रक्तपूर्ण खड्ग लिए सहसा प्रवेश––चाणक्य का बन्धन काटता है, राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है ]

चन्द्रगुप्त––चुप रहो अमात्य! शवो मे बोलने की शक्ति नही, तुम्हारे प्रहरी जीवित नहीं रहे।

चाणक्य––मेरे शिष्य! वत्स चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्त––चलिए गुरुदेव!––( खड्ग उठाकर राक्षस से ) ––यदि तुमने कुछ भी कोलाहल किया तो ... ( राक्षस बैठ जाता है ; वररुचि गिर पड़ता है। चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिए निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है। )