८
गांधार-नरेश का प्रकोष्ठ।
[चिन्तायुक्त प्रवेश करते हुए राजा]
राजा—बूढ़ा हो चला, परन्तु मन बूढ़ा न हुआ। बहुत दिनों तक तृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नहीं होती। आम्भीक तो अभी युवक है, उसके मन में महत्त्वाकांक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पय कुटिल है, गंधर्व-नगर की-सी सफलता उसे अपने पीछे दौड़ा रही है।—(विचार कर)—हाँ, ठीक तो नही हैं; पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढने में बड़ी कठिनता है—(ठहरकर)—रोक दूँ। अब से भी अच्छा है, जब वे घुस आवेंगे तब तो गांधार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हम दूसरों को देना चाहते हैं।
[अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश]
राजा—बेटी! अलका!
अलका—हाँ महाराज, अलका।
राजा—नहीं, कहो—हाँ पिताजी। अलका, कब तक तुम्हें—सिखाता रहूँ!
अलका—नहीं महाराज!
राजा—फिर महाराज! पागल लड़की। कह, पिताजी!
अलका—वह कैसे महाराज! न्यायाधिकरण पिता-सम्बोधन से पक्षपाती हो जायगा।
राजा—यह क्या?
यवन—महाराज! मुझे नहीं मालूम कि ये राजकुमारी हैं। अन्यथा, मैं इन्हें बन्दी न बनाता।
राजा—सिल्यूकस! तुम्हारा मुख कंधे पर से बोल रहा है। यवन! यह मेरी राजकुमारी अलका है। आ बेटी—(उसकी ओर हाथ बढ़ाता है, वह अलग हट जाती है।)