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प्रथम अंक
 


अलका—यें दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे हैं—जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था, वे ही अब यवनों के अनुगत क्यों होना चाहते हैं?

[दाण्ड्यायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछ विचारने लगता है]

चन्द्रगुप्त—देवि! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है।

चाणक्य—राजकुमारी! उस परिस्थित पर आपने विचार नहीं किया हैं, आपकी शंका निर्मूल हैं।

दाण्ड्यायन—सन्देह न करो अलका! कल्याणकृत को पूर्ण विश्वासी होना पडे़गा। विश्वास सुफल देगा, दुर्गति नहीं।

[यवन सैनिक को प्रवेश]

यवन—देवपुत्र आपकी सेवा में आया चाहते हैं, क्या आज्ञा है?

दण्ड्यायन—मैं क्या आज्ञा दूँ सैनिक! मेरा कोई रहस्य नहीं, निभृत मन्दिर नहीं, यहाँ पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत हैं।

[सैनिक जाता है]

अलका—तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो।

दाण्ड्यायन—कोई आतंक नहीं है अलका! ठहरो तो।

चाणक्य—महात्मन्, हम लोगों को क्या आज्ञा है? किसी दूसरे समय उपस्थित हो?

दाण्ड्यायन—चाणक्य! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पर रहना होगा, क्योंकि सब विद्या के आचार्य्य होने पर भी तुम्हें उसका फल नहीं मिला—उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे हृदय में हलचल मची है, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं।

[सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रेटीज इत्यादि सहचरों के साथ प्रवेश, सिकन्दर नमस्कार करता है, सब बैठते हैं]

दण्ड्यायन—स्वागत अलक्षेन्द्र! तुम्हें सुबुद्धि मिले।

च॰ ७

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