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घृणा

लकर मारने आए तो आप उस पर क्रोध करेंगे। घृणा का भाव शांत है उसमें क्रियोत्पादिनी शक्ति नहीं है। घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का। हम किसी से घृणा करेंगे तो बहुत करेंगे उसकी राह बचाएँगे, उससे बोलेंगे नहीं; पर यदि किसी पर क्रोध करेंगे तो ढूँढ़कर उससे मिलेंगे और उसे और नहीं तो दस-पाँच ऊँची-नीची सुनाएँगे। घृणा विषय से दूर ले जानेवाली है और क्रोध हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर विषय के पास ले जानेवाली। कहीं-कहीं घृणा क्रोध का शान्त रूपांतर मात्र प्रतीत होती है। साधारण लोग जिन बातों पर क्रोध करते देखे जाते हैं साधु लोग उनसे घृणा मात्र करके; और यदि साधुता ने बहुत जोर किया तो उदासीन ही होकर, रह जाते है। दुर्जनों को गाली सुनकर साधारण लोग क्रोध करते है पर साधु लोग उपेक्षा ही करके सन्तोष कर लेते हैं। जो क्रोध एक बार उत्पन्न होकर सामान्य लोगों में वैर के रूप में टिक जाता है वही क्रोध साधु लोगों में घृणा के रूप में टिकता है। दोनों के जो भिन्न-भिन्न परिणाम हैं वे प्रत्यक्ष हैं। यदि जिस पर एक बार क्रोध उत्पन्न हुआ उसका व्यवहार आकस्मिक है तो वैर कर बैठना और यदि बराबर अग्रसर होनेवाला है तो घृणा मात्र करना निष्फल होता है।

आजकल की बनावटी सभ्यता या शिष्टता में "घृणा" शब्द वैर या क्रोध को छिपाने का भी काम दे जाता है। यदि हमें किसी से वैर है तो हम दस-पाँच सभ्यों के बीच बैठकर कहते हैं कि हमें उससे घृणा है। इस बात में हमारी चालाकी प्रत्यक्ष है। वैर का आधार व्यक्तिगत होता है, घृणा का सार्वजनिक। वैर के नाम पर यह समझा जाता है कि कही दो या अधिक मनुष्यों के लक्ष्य का परस्पर विरोध हुआ है; पर घृणा का नाम सुनकर अधिकतर यही अनुमान होता है कि समाज के लक्ष्य या आदर्श का विरोध हुआ है। वैर करना एक छोटी बात समझी जाती है। अतः वैर के स्थान पर घृणा का नाम लेने से बदला और बचाव दोनों हो जाते है।