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चिन्तामणि

क्योंकि उनसे भय करके हम अपने का बचा तो सकते नहीं, उनके पहले के दिनों के सुख को भी खो अलबत सकते हैं।

सभ्यता या शिष्टता के व्यवहार में 'घृणा' उदासीनता के नाम से छिपाई जाती है। दोनों में जो अन्तर है वह प्रत्यक्ष है। जिस बात से हमें घृणा है, हम चाहते क्या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो; पर जिस बात से हम उदासीन हैं उसके विषय में हमें परवा नहीं रहती, वह चाहे हो, चाहे न हो। यदि कोई काम किसी की रुचि के विरुद्ध होता है तो वह कहता है "उँह! हम से क्या मतलब, जो चाहे सो हो"। वह सरासर झूठ बोलता है; पर इतना झूठ समाजस्थति के लिए आवश्यक है।