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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

ही ऐसे समय में हुआ जब लोगों की दृष्टि बहुत कुछ संकुचित हो चुकी थी। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के आदर्श लोगों के सामने से हट चुके थे।

हमारे आदिकवि वाल्मीकि के हृदय में जो भावुकता थी वह कुछ काल पीछे मन्द पड़ने लगी। जिस तन्मयता के साथ उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण किया है उसकी परम्परा कालिदास, भवभूति तक पाई जाती है। वाल्मीकि के हेमन्त-वर्णन में कैसा सूक्ष्म प्रकृति-निरीक्षण है। उनके वर्षा के वर्णन में भी यही बात है—

क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं,
नभः प्रकीर्णाम्बुधनं विभाति।
क्वचित् क्वचित्पर्वत-संनिरुद्‌धं,
रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य॥
व्यामिश्रितं सर्जकदम्ब-पुष्पै-
र्नवं जलं पर्वत-धातु ताम्रम्।
मयूरकेकाभिरनुप्रयातं,
शैलापगाः शीघ्रतरं वहन्ति॥

उपर्युक्त वर्णन में किस सूक्ष्मता के साथ कविकुलगुरु ने ऐसे प्राकृतिक व्यापारों का निरीक्षण किया है जिनकी बिना किसी अनूठी उक्ति के गिना देना ही कल्पना का परिष्कार और भाव का संचार करने के लिए बहुत है। कालिदास के कुमारसम्भव का हिमालयवर्णन, रघुवंश से उस वन का वर्णन जहाँ नन्दिनी को लेकर दिलीप गए हैं, तथा मेघदूत में यक्ष के बताए हुए का मार्ग का वर्णन बार-बार पढ़ने योग्य है। भवभूति का तो कहना ही क्या है। देखिए—

एते त एव गिरयो विरुवन्मयूरा-
स्तान्येव मत्तहरिणानि वनस्थलानि।
आमञ्जु-वञ्जुल-लतानि च तान्यमूनि,
नीरन्ध्र-नील-निचुलानि सरित्तटानि॥