पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१४६

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काव्य में रहस्यवाद | १३६ आकर्षित किया करता है, वह क्या है ? उत्तर मिला “वह मै ही हूँ--मैं छिपा हुआ भी हूँ और तुम्हारे सामने भी हूँ । मेरे दोनो रूप शाश्वत और अनन्त है” । नर ने कहा “बस, इसी सामनेवाले रूप की नित्यता और अनन्तता जरा मुझे दिखा दीजिए' । नारायण ने दिक्-काल का परदा हटाकर अपना व्यक्त, गोचर और अव्यय विश्वरूप सामने कर दिया ।* ।। सारा बाह्य जगत् भगवान् का व्यक्त स्वरूप है। समष्टि रूप में वह नित्य है, अतः 'सत्' है ; अत्यन्त रञ्जनकारी है, अतः ‘आनन्द है । अतः इस ‘सदानन्द स्वरूप का वह प्रत्यक्ष अंश जो मनुष्य को रक्षा में ( बनी रहने देने अर्थात् सत् को चरितार्थ करने में ) और रञ्जन में ( सुख और सद्गल का विधान करने में ) अपार शक्ति के साथ प्रवृत्त दिखाई पड़ा, वही उपासना के लिए, हृदय लगाने के लिए, लिया गया । जिसमें शक्ति, शील और सौन्दर्य तीनो का योग चरम वस्था में दिखाई पडा वही प्राचीन भारतीय भक्तिरस का आलम्बन हुआ । कर्मक्षेत्र में प्रतिष्ठित यह आलम्बन मनुष्य के अनेक-भावात्मक हृद्य के साथ पूरा-पूरा बैठ गया ; कोई कोना छटने न पाया। मैं ऋतुओं में वसन्त हूँ, शस्त्रधारियों में राम हूँ, यादवो में कृष्ण हूँ' का संकेत यही है। राम और कृष्ण की व्यक्त और प्रत्यक्ष कला को लेकर ही भारतीय भक्ति काव्य अब तक चला आ रहा है ; ब्रह्म की अव्यक्त या परोक्ष सत्ता को लेकर नहीं है। | इस सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने की बात है कि भक्ति क्षेत्र में राम या कृष्ण की प्रतिष्ठा रहस्य बतानेवाले 'सद्गुरु' या स्वर्ग को संदेसा लानेवाले पैग़म्बर के रूप में नहीं है ; लोक के भीतर अपनी

  • [ देखिए गीता, अध्याय ११, विश्वदर्शनयोग ] [ राम शस्त्रभृतामहम्-गीता, १०५३१ ]