पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१४९

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चिन्तामणि

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१४२ चिन्तामणि प्रन्छी तरह विचार करने पर यह प्रकट होगा कि “अज्ञान का गग' ही अन्तर्वृत्ति को रहस्योन्मुख करता है । मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति में इम अज्ञान के राग का भी ठीक उसी प्रकार एक विशेष स्थान है जिस प्रकार ज्ञान के राग का । ज्ञान का राग बुद्धि को नाना तत्त्वे के अनुसन्धान की ओर प्रवृत्त करता है और उसी सफलता पर तुष्ट होता है । अज्ञान का राग मनुष्य के ज्ञान-प्रसार के बीच-बीच मैं र ? हुए अन्धकार या धुंधलेपन की ओर आकर्षित करता है तथा बुद्धि की असफलता और शान्ति पर तुष्ट होता है । अज्ञान के राग की इस तुष्टि की दशा में मानसिक श्रम से कुछ विराग-सा मिलता जान पड़ता है और उस अन्धकार या धुंधलेपन के भीतर मन के चिर-पोपित रूपो की अवस्थिति के लिए दृश्य-प्रसार के बीच अवकाश मिल जाती है। शिशिर के अन्त में उठी हुई धूल छाई रहने के कारण किसी भारी मैदान के क्षितिज से मिले हुए छोर पर वृक्षावलि की जो धुंधली श्यामल रेखा दिखाई पड़ती है उसके उस पार किसी अज्ञात दूर देश का बहुत सुन्दर और मधुर आरोप स्वभावतः आप से आप होता है। मनुष्य की सुदूर आशा के गर्भ में भरी हुई रमणीयता की कैसी सनोहर और गोचर व्यञ्जना उसके द्वारा होती है-- . कुँधले दिगन्त में विलीन हरिदाभ रेखा, किसी दूर देश की सी झलक दिखाती है । जहाँ स्वर्ग भूतल का अन्तर सिटी है चिर, । पथिक के पथ की अवधि मिल जाती है । भूत औ भविष्यत् की भव्यता भी सारी छिपी | दिव्य भावना सी वहीं भासती भुलाती है । दूरती के गर्भ में जो रूपता भरी है वही । माधुरी हो जीवन की कटुता मिटाती है ।