पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चिन्तामणि

________________

चिन्तामणि व्याप्ति के लिए मनुष्य को जिस प्रकार विस्तृत और अनेकरूपात्मक क्षेत्र मिला है उसी प्रकार ‘भावो' ( मन के वेग ) की व्याप्ति के लिए भी । अब यदि आलस्य या प्रसाद के कारण मनुष्य इस द्वितीय क्षेत्र को सङ्कचित कर लेगा तो उसका आनन्द पशुओं के प्रानन्द से विशाल किसी प्रकार नहीं कहा जा सकेगा । अतः यह सिद्ध हुआ कि वन, पर्वत, नदी, निर्झर, पशु, पक्षी, खेत-बारी इत्यादि के प्रति हमारा प्रेम स्वाभाविक है, या कम से कम वासना के रूप में अन्तःकरण में निहित है । पर प्रेम की प्रतिष्ठा दो प्रकार से होती है—-( १ ) सुन्दर रूप के अनुभव द्वारा और ( २) साहचर्य द्वारा सुन्दर रूप के आधार पर जो प्रेम-भाव या लोभ ( मेरे मानस-कोश में दोनों का अर्थ प्रायः एक ही निकलता है ) प्रतिष्ठित होता है उसका हेतु संलक्ष्य होता है, और जो केवल साहचर्य के प्रभाव से अङ्कुरित और पल्लवित होता है वह एक प्रकार से हेतु-ज्ञान-शून्य होता है। यदि हम किसी किसान को उसकी झोपड़ी से हटाकर किंसी दूर देश में ले जाकर राजभवन में टिका दे तो वह उस झोपड़ी का, उसके छप्पर पर चढ़ी हुई कुम्हड़े की वेल का, सामने के नीम के पेड़ का, द्वार पर बँधे हुए चौपायो का ध्यान करके आँसू बहावेगा । वह यह कभी नहीं समझता कि मेरा झोपड़ी इस राजभवन से सुन्दर था , परन्तु फिर भी झोपड़े का प्रेम उसके हृदय में बना हुआ है। यह प्रेम रूप-सौन्दर्यगत नहीं है ; सञ्चा स्वाभाविक और हेतु-ज्ञान-शून्य प्रेस है। इस प्रेम को रूप-सौन्दर्यगत प्रेम नही पहुँच सकता। इससे यह स्पष्ट है कि अपने सुख-विलास के अथवा शोभा और सजावट की अपनी रचनाओं के आदर्श को लेकर जो प्रकृति के क्षेत्र का अवलोकन करते है और अपना प्रेमानन्द केवल इन शब्दो में प्रकट करते है कि “अहा हा ! कैसे लाल-पीले और सुन्दर फूल खिले हैं, पेड़