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चिन्तामणि

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१६० चिन्तामणि अनुभव होता है। यदि वह अानन्दानुभव माना जाय तो गुलाबजामुन खाने और इत्र सुँघने के प्रानन्द के समान ही ठहरता है और एक तरह का भोगविलास ही है । हाँ, यह अवश्य है, कि जैसे और प्रकार के आध्यात्मिक भास के साथ अनन्दानुभूति लगी रहती है वैसे ही कला-सम्वन्धी भास के साथ भी । पर इस प्रानुषंगिक वस्तु को मूल वस्तु से अलग समझना चाहिए । आगे चलकर क्रोचे उसे रसवाद का भी खण्डन करता है जिसमें रति, क्रोध, शोक श्रादि भिन्न-भिन्न भावों की रसरूप से अनुभूति हो काव्यानुभूति मानी गई है। वह कहता है कि रसवादी रसानुभूति की वास्तविक अनुभूति से इसी बात में विशेपता बतलाते हैं कि वह नि:स्वार्थ और निर्लिप्त होती है । पर यह भेद व्यर्थ है। इस भेद के सहारे लोगों ने कला-समीक्षा के क्षेत्र में किसी ज़माने में प्रचलित 'सत्यं, शिवं सुन्दरम्” ( The True, the Goocl att(f the Beautiful )-इन भिन्न भिन्न क्षेत्र के शब्दों के बीच सामन्जस्य-स्थापना का प्रकाण्ड प्रयत्न क्रिया, पर इसका ज़माना लद गया ।* अनुभूति ( feeling ) तो क्रोचे के अनुसार शरीर के योग-क्षेम से सम्बन्ध रखनेवाली भीतरी किया है। अतः उसके सुखदायक-दुःखदायक,

  • पर यहाँ अभी तक चल रहा है। योरपीय समीक्षा-क्षेत्र की इस प्रदावली को हिन्दुस्तान में सबसे पहले दाखिल करनेवाले ब्रह्म-समाज के प्रवक राजा राममोहन राय थे । उसके पीछे महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने इसकी खूब उद्धरणी की शर यह बँगला के साहित्य-क्षेत्र में तब से बरावर चलती अ रही है। सत्यं, शिवं सुन्दरम्” अगरेज़ी के The True; the good and {}ie Becautiful [ दी है. दी गुड एइ दी ब्यूटीफुल } का अनुवाद है यह मैं

काव्य में रहस्यवाद' नाम की पुस्तक में दिखा चुका हूँ । [ देखिए पीछे पृष्ठ १३७] प्राजकज हिन्दी में भी यह पदावली, शायद् उपनिषद्वाक्य । समझी जाकर, बहुत उद्धृत की जाती है, यद्यपि योरप से इसका फैशन उठे बहुत दिन हुए । प्रसिद्ध अाधुनिक समालोचक रिचड्स ने इसका उल्लेख इस प्रकार किया है Thus arises the phantom problem of the aesthetic mode or acsthetic state- legacy fron the days of abstract investigation into the Good, the Beautiful and the True -Principles of Criticism.