पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१९६

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काव्य में अभिव्यसना स्वयप्रकाश ज्ञान ( Intuition ) को ‘साँचे में ढलकरंयक होना ही कल्पना है, और कल्पना ही मुल अभिव्यञ्जना ( Expression ) है जो भीतर होती है और शब्द, रंग आदि द्वारा वाहर प्रकाशित की जाती हैं। यदि सचमुच स्वयंप्रकाश ज्ञान हुआ है, भीतर अभिव्यञ्जना हुई है, तो वह चाहर भी प्रकाशित हो सकती है। लोगों का यह कहना कि कवि के हृदय में बहुत सी भावनाएँ उठती हैं, जिन्हें वह अच्छी तरह व्यक नहीं कर सकती, क्रोचे नहीं मानता । वह कहता है कि जो भावना या कल्पना बाहर व्यक्त नहीं हो सकती उसे अच्छी तरह उठी हुई ही न समझना चाहिए। प्रत्येक अभिव्यञ्जना ( Expression ) या उसके बाहरी रूप ऊक्ति की अपनी अलग विशेष सत्ता होती है। अनेक अभिव्यञ्जनायों या उक्तियों के बीच कुछ सामान्य लक्षण कर काव्य के सम्बन्ध में कुछ कहना-सुनना व्यर्थ है ।। अतः साहित्य-शास्त्र में रचनाओं के जो अनेक भेद किए गए हैं, कलर की दृष्टि से, वे निरर्थक हैं- जैसे, अनेक प्रकार के अहंकार तथा वास्तविक्र ( Realistic ) और प्रतीकात्मक ( Symbolic ), बाह्यार्थ-निरूपक ( Objective ) और अन्तवृत्ति-निरूपक ( Subjective 1, रूढिबद्ध और स्वच्छन्द, अलकृत-अनलंकृत इत्यादि भेद ।। | अलकार के सम्बन्ध में क्रोचे कहता है कि अलंकारे तो शोभा के लिए । ऊपर से जोडी या पहनाई हुई वस्तु को कहते हैं। अभिव्यञ्जना या उक्ति में । अलकार जुड़ कैसे सकता है ? यदि कहिए बाहर से, तो उसे उक्ति से सदा अलग रहना चाहिए। यदि कहिए भीतर से, तो वह या तो उक्ति के लिए। 'दाल-भात में मूसर चन्द' होगा अथवा उसका एक अङ्ग ही होगा । | रम, अलकार आदि के नाना भेद क्रोचे के अनुसार, कला की सिद्धि में कोई योग न देकर तर्क या शास्त्रपक्ष में सहायक होते हैं। इन सबका मूल्य केवल 'वैज्ञानिक समीक्षा' में है, कला-निरूपिणी समीक्षा में नहीं । कलासम्बन्धी भास उस प्रकार का अनुभव भी नहीं जिस प्रकार का सुख-दुःख का | ॐ आगे चलकर क्रोचे को कुछ अभिव्यञ्जनाओं में सजातीय साम्य ( Family Likenesses ) स्वीकार करना पड़ा है। सजातीय, विजातीय भेद मान लेना वर्गीकरण की सम्भावना स्वीकार करना ही है ।।