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चिन्तामणि

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१६२ चिन्तामणि सर्वथा भिन्न होता है । काव्य को ही लीजिए। उसमें सुखात्मक ( जैसे, रति, हास ) और दुःखात्मक ( जैसे, शोक, जुगुप्पा ) दोनों प्रकार के भावों की 'अभिव्यन्जना होती है। अतः यह प्रश्न उठता है कि शोक या करुणा की अनुभूति आनन्द-स्वरूप कैसे होगी । इस उलझन से पीछा छुड़ाने के लिए प्राधुनिक 'सौन्दर्य-शा' में अनुभूत्याभास (Apparetat feelings ) का सिद्धान्त निकाला गया है । इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों का कहना है कि कला-सम्वन्धिनी अनुभूति अनुभूत्याभास मात्र होती है, वह बहुत तीव्र श्रीर क्षोभकारिणी नहीं होती । क्रोचे कहता है कि वह बहुत तीव्र या क्षोभकारिणी इसलिए नहीं होती कि उसका सम्बन्ध केवल उक्ति के स्वरूप (Form) से होता है। जीवन के वास्तविक मनोविकार जो इतने तीव्र और क्षोभकारक होते हैं वह इस कारण कि उनका सम्बन्ध वग्नु या तथ्य ( Afatter ) से होता है। वास्तविक स्थिति या वस्तु की अनुभूति एक बात है, अभिव्यन्जना दूसरी बात । दोनों को दो भिन्न भिन्न क्षेत्रों के विषय समझना चाहिए। कला में तो विचार के छत है अभियन्जन ।। | कला के क्षेत्र में सुन्दर-असुन्दर' का प्रयोग अभिव्यञ्जना या उक्ति के लिए ही हो सकता है, यह कह अाए हैं । अभिव्यञ्जना चा उक्ति को न लेकर यदि हम चर्य वस्तु को लेते हैं तो सुन्दर-असुन्दर ही नहीं और भी अनेक प्रकार के भेद ठहरते है जैसे, सुन्दर, कुरूप, वीभत्स, भयानक, भव्य, अद्भुत, दिव्य इत्यादि । लम्जनों के इन गुणों के अनुसार साहित्य में अनेक भेद किए भी गए हैं। क्रोचे कहता है कि ये सब भद कला के काम के नहीं , इनका ठीक स्थान मनोविज्ञान में हैं। इन अनेक श्रेणियों में विभक्त प्रमेय या वस्तुओं को कला से केवल इतना ही लगाव है कि उसकी अभिव्यञ्जना में ये सबकी सब वस्तुएँ जीवन-क्षेत्र से संगृहीत उपादान या मसाले का काम देती हैं अर्थात् काव्य की उक्ति में इसका भी प्रतिबिम्ब आ जाया करता है। एक दूसरा आकस्मिक सम्बन्ध यह भी है कि वास्तविक जीवन में अनुभूत होनेवाली इन वस्तुओं की प्रतीति के भीतर कभी कभी कला का प्रभास भी आ जाया करता है ।* mm The facrs bear no relation to the artistic fact beyond the generic one that all of them, in so far as they designate the material of life, can be represented by art, and the other accidental relation, that aesthetic facts also may sometimes enter into the processes described