पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य' ।' साथ जिनमे मनुष्यजाति के उस समय के पुराने सहचरों की वंश, परम्परागत स्मृति वासना के रूप में बनी हुई है, जब वह 'प्रकृति के खुले क्षेत्र में विचरती थी, वे ही पूरे सहृद्य कहे जा सकते हैं। पहले कह आए हैं कि वन्य और ग्रामीण दोनों प्रकार के जीवन प्राचीन हैं, दोनो पेड़-पौदों, पशु-पक्षियो, नदी-नालो और पर्वत-मैदानो के बीच व्यतीत होते हैं, अतः प्रकृति के अधिक रूपो के साथ सम्बन्ध रखते हैं। हम पेड़-पौदो और पशु-पक्षियों से सम्बन्ध तोड़कर, नगरो में आ बसे , पर उनके विना रहा नहीं जाता। हम उन्हें हरवक्त पास न रखकर एक घेरे में बंद करते हैं, और कभी-कभी मन बहलाने को उनके पास चले जाते हैं। हमारा साथ उनसे भी छोड़ते नहीं बनता। कबूतर हमारे घर के छज्जो पर सुख से सोते हैं | ता कस्याञ्चिद्भवनवलभौ सुप्तपावताया नीत्वा रात्रिं थिरविलसनात्खिनविद्युत्कलत्रः । गौरे हमारे घर के भीतर आ बैठते हैं, बिल्ली अपना हिस्सा या तो म्याऊँ-म्याऊ करके मॉगती है या चोरी से ले जाती है, कुत्ते घर की रखवाली करते हैं और वासुदेवजी कभी-कभी दीवार फोड़कर निकल पड़ते हैं । बरसात के दिनों में जब सुरखी-चूने की कड़ाई की परवा न करके हरी-हरी घास पुरानी छत पर निकल पड़ती है तब मुझे उसके प्रेम का अनुभव होता है । वह मानो हमे हुँढ़ती हुई आती है और कहती है कि तुम मुझसे क्यों दूर-दूर भागे फिरते हो ? | वन, पर्पतों, नदी-नालो, कछारो, पटपरो, खेतो, खेतो की नालियो, घास के बीच से गई हुई दुरियो, हल-बैलो, झोपड़ो और श्रम में लगे हुए किसानो इत्यादि मे जो आकर्षण हमारे लिए है वह हमारे अन्तःकरण में निहित वासना के कारण है, असाधारण चमत्कार या अपूर्वं शोभा के कारण नहीं । जो केवल पावस की हरियाली और वसन्त के पुष्प-हास के समय ही वनों और खेतों को देखकर प्रसन्न हो सकते हैं, जिन्हें